वेदों के विरुद्ध पश्चिमी षड्यंत्र: आंतरिक आत्मबल से जवाब

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भारत की सबसे प्राचीनतम धरोहर वेद और शास्त्र न केवल आध्यात्मिक उन्नति के पथ हैं, बल्कि ये हमारी सांस्कृतिक पहचान, न्यायबुद्धि और सभ्यता के स्रोत हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश, इन वेदों को विकृत करने का एक संगठित प्रयास वर्षों से चलता आ रहा है – विशेषकर ऑक्सफोर्ड, हार्वर्ड जैसे पश्चिमी शिक्षण संस्थानों के माध्यम से, जिन्होंने संस्कृत और वेदों के अध्ययन को औपनिवेशिक उद्देश्यों के अधीन कर डाला।

विलियम्स की डिक्शनरी से लेकर हार्वर्ड के संस्कृत पाठ्यक्रमों तक, एक ही लक्ष्य रहा है – हिंदुओं के धर्मांतरण और उनकी जड़ों से उन्हें काटना। ऑक्सफोर्ड ने न केवल संस्कृत को अपने अनुसार ढाला, बल्कि वेदों के अनुवाद और व्याख्या में ऐसा विकृति पैदा की जिससे हिंदू धर्म को “पंचिंग बैग” बनाकर प्रस्तुत किया जा सके।

वेदों की परंपरा में शब्द किसी वस्तु को नहीं, बल्कि एक भाव को प्रकट करते हैं। यज्ञ का अर्थ केवल हवन नहीं, “देव-पूजा, दान और संगति-कारण” है – अर्थात वह समर्पण जो सम्पूर्ण समाज के कल्याण हेतु किया जाए। इसी तरह ‘काशी’ केवल एक नगर नहीं, बल्कि एक “प्रकाशस्थल” है – वह जो आत्मज्ञान की ओर ले जाए।

विडंबना यह है कि पश्चिमी संस्थानों द्वारा बनाए गए संस्कृत “विद्वान” – जो भारतीय परंपरा से दूर हैं – वेदों के ऐसे अर्थ निकालते हैं जो या तो अर्थहीन होते हैं या घोर अपमानजनक। उदाहरण स्वरूप, वेदों में आए शब्द “वाशी” का अर्थ “वशीकरण” बता देना, या “उच्च” शब्द का अर्थ “बैल” कर देना, यह न केवल अज्ञानता है बल्कि एक अपवित्र प्रयास भी है।

यह भी देखा गया है कि कई प्रतिष्ठित भारतीय प्रकाशन संस्थानों जैसे चौखंबा और मोतीलाल बनारसीदास की पुस्तकों में भी इन पश्चिमी विद्वानों की विकृत व्याख्याएं शामिल होती हैं। इसका कारण यही है कि हमारी यूनिवर्सिटियों में आज भी वही पाठ्यक्रम पढ़ाए जाते हैं जो भारत के पहले शिक्षा मंत्रियों ने, कम्युनिस्ट प्रभाव में, थोपे थे।

हमें यह समझना होगा कि वेदों का अध्ययन केवल “अकादमिक पेपर” के लिए नहीं होता। जैसे रक्षा या विज्ञान से जुड़ी राष्ट्रीय गोपनीय जानकारियाँ सार्वजनिक नहीं की जातीं, वैसे ही वेदों के गूढ़ तत्व केवल योग्य पात्रों को ही सौंपे जाते हैं। यही कारण है कि हमारे शास्त्रों में कहा गया है – “कुपात्र को वेदज्ञान देना वर्जित है।”

हमें यह भी स्वीकारना होगा कि कई बार पश्चिमी संस्थानों से निकले ज्ञान को हम बिना जांचे स्वीकार कर लेते हैं। वे चाहे शेल्डन पोलॉक हों या माइकल विट्जल – इनका उद्देश्य अध्ययन नहीं, अपमान है। संस्कृत की पवित्रता को पहचानने के लिए केवल व्याकरण नहीं, साधना, विनम्रता और श्रद्धा की भी आवश्यकता होती है।

आज पुराने ज्ञान की ओर हम पुनः वापस लौटेंगे – बिना हीनता-बोध के। अपने बच्चों से हम यह कहेंगे कि ग्रिफिथ जैसे विदेशी “अनुवादक” न तो ऋषि थे, न योगी, और न ही संस्कृत के सच्चे पंडित। “यह मेरा ज्ञान है, मेरी जड़ है, मेरा अधिकार है इसे समझने और सहेजने का।”

वेदों की भाषा बहुत वैज्ञानिक और सांकेतिक है। ऋतु परिवर्तन से लेकर राजनीति तक, हर विषय का संदर्भ वेदों में मिलता है – पर उसे समझने के लिए श्रद्धा और गंभीरता चाहिए। उदाहरण के लिए, ऋग्वेद के एक मंत्र में जब प्रकाश के लुप्त होने और वसंत में पुनः उदय होने की बात होती है, वह केवल मौसम का वर्णन नहीं – बल्कि जीवन और मृत्यु के चक्र का प्रतीक है।

अंततः, यह स्मरण रहे कि वेद किसी धर्म विशेष की सम्पत्ति नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए उपलब्ध वह दिव्य ज्ञान है जो आत्मा की उन्नति के साथ-साथ समाज की रक्षा भी करता है। जब तक हम अपनी धरोहर को बाहरी चश्मे से देखेंगे, हमें भ्रमित किया जाएगा। पर जब हम उसे अपनी दृष्टि से देखेंगे – तो वह हमारे आत्मबल का, हमारे अस्तित्व का स्रोत बन जाएगा।

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