एक भिक्षुक था। एक बार वह भिक्षा मांगने एक द्वार पर पहुंचा। रूखा जवाब मिलने पर भी वह नाराज नहीं हुआ, बल्कि आगे चला गया। एक थानेदार ने उस भिक्षुक को देखा और उसे उस भिक्षुक पर तरस आ गया। उसने भिक्षुक की रोटी देने के लिए अपने पास बुलाया। पर भिक्षुक थोड़ा आगे जा चुका था, इस कारण वह थानेदार की आवाज़ नहीं सुन पाया तब थानेदार ने एक सिपाही को भिक्षुक को रोटी देने के लिए भेजा। सिपाही ने भिक्षुक के पास जाकर जब उसे रोटी दी तो भिक्षुक बोला, ‘मैं रिश्वत का अन्न नहीं खाता थानेदार को भिक्षुक द्वारा कही गई बातें सुना दीं और वे शब्द कानों से होते हुए सीधे थानेदार के हृदय में गहरे उतर गए और उसने सदा-सदा के लिए रिश्वत लेना छोड़ दिया। भिक्षुक की प्रतिज्ञों ने, उसके निर्दोष , व्रत ने थानेदार की जिन्दगी सुधार दी।
– – – आचार्य श्री विद्यासागर जी
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