बांग्लादेश, भारत, म्यांमार और दक्षिण-पूर्व एशिया में नए साल के उत्सवों की रौनक

ढाका/नई दिल्ली/नैपीडॉ। अप्रैल का मध्य दक्षिण-पूर्व एशिया के कई देशों में उल्लास और सांस्कृतिक रंगों से सराबोर रहा, जब बांग्लादेश, भारत, म्यांमार और अन्य देशों ने पारंपरिक नववर्ष को पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया। यह समय न केवल नए सौर कैलेंडर के आरंभ का प्रतीक है, बल्कि सांस्कृतिक एकता, धार्मिक सहिष्णुता और विरासत के सम्मान का उत्सव भी है।

बांग्लादेश ने बंगाली नववर्ष 1432 की शुरुआत ‘पोहेला बोइशाख’ के साथ की, जहाँ राजधानी ढाका समेत पूरे देश में पारंपरिक परिधानों, लोक संगीत, और सांस्कृतिक प्रदर्शनों से सजी रैलियों का आयोजन हुआ। ढाका विश्वविद्यालय परिसर से निकली ‘बर্ষाबরণ आनंद शोभायात्रा’ इस उत्सव का मुख्य आकर्षण रही, जिसमें हजारों की संख्या में लोग शामिल हुए।

बांग्लादेश शिल्पकला अकादमी, बांग्ला अकादमी और विभिन्न सार्वजनिक स्थलों पर भी समारोह आयोजित किए गए। नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर मोहम्मद यूनुस ने एक वीडियो संदेश में नववर्ष की शुभकामनाएं दीं और देशवासियों से एक समरस, शांतिपूर्ण और भेदभाव-मुक्त समाज की ओर काम करने का आग्रह किया।

भारत में यह पर्व विभिन्न राज्यों में अलग-अलग नामों और परंपराओं के साथ मनाया गया। पश्चिम बंगाल में ‘पोइला बोइशाख’, असम में ‘रंगाली बिहू’ या ‘बोहाग बिहू’, पंजाब में ‘वैशाखी’, केरल में ‘विषु’, तमिलनाडु में ‘पुथांडु पिरप्पु’, ओडिशा में ‘मेष संक्रांति’ और आंध्र प्रदेश व कर्नाटक में ‘उगादि’ के रूप में नववर्ष की शुरुआत हुई।

असम में 7वीं सदी के कामरूप के राजा भास्कर वर्मा के नाम पर आधारित ‘भास्कराब्द’ पंचांग के अनुसार नए साल 1432 का स्वागत ‘गोरु बिहू’ से किया गया, जिसमें गोमाता की पूजा कर कृषिप्रधान जीवनशैली की परंपरा को नमन किया गया। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशवासियों को विभिन्न पर्वों की शुभकामनाएं दीं।

म्यांमार में 13 अप्रैल से शुरू हुआ पारंपरिक ‘थिंग्यान’ महोत्सव 17 अप्रैल को नववर्ष 1386 के साथ समाप्त हुआ। देश में चल रहे राजनीतिक संकट और मानवीय संकट के बावजूद, नागरिकों ने परंपरागत जल उत्सवों, मंदिरों और विहारों में दीप जलाकर उम्मीद और एकजुटता का संदेश दिया।

थाईलैंड ने 13 से 15 अप्रैल तक ‘सोंगक्रान’ या ‘वाटर फेस्टिवल’ मनाया, जो बौद्ध वर्ष 2568 की शुरुआत का प्रतीक है। मान्यता है कि इस समय हिंदू देवता इंद्र भगवान बुद्ध को स्नान कराने के लिए पृथ्वी पर उतरते हैं। इसी प्रकार कंबोडिया, लाओस और चीन के कुछ भागों में भी पारंपरिक नववर्ष का स्वागत किया गया।

इन सभी देशों में अप्रैल के मध्य में मनाया जाने वाला नववर्ष धार्मिक सीमाओं से परे जाकर लोगों को एक साझा विरासत, शांति और समरसता के सूत्र में पिरोता है। यह उत्सव क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद, एक साझा सांस्कृतिक चेतना का सजीव प्रमाण बन चुका है।

नववर्ष की ये पारंपरिक परंपराएँ हमें यह याद दिलाती हैं कि सांस्कृतिक धरोहरों का सम्मान और सामाजिक समरसता ही किसी भी समाज की स्थायी शक्ति होती है।

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