पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – शुभ-संकल्प, सकारात्मक सोच, उदारता और पारमार्थिक प्रवृत्तियों का परिणाम है – आनन्द और अभयता…! हम सबसे पहला संकल्प आलस्य त्याग का लें। आलस्य हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। यह शत्रु हमारी उन्नति के सभी द्वार बंद कर देता है। अग्रगामी होने के लिए, अशुभ कार्यों एवं परिवृत्तियों के परित्याग के लिए हमें संकल्प करना पड़ेगा। बिना दृढ़ संकल्प के न तो मन की दुर्बलताओं को छोड़ा जा सकता है और न ही परिवेक्ष की दुष्प्रवृत्तियों को। हम आत्मोत्थान का संकल्प लें। अपनी कमज़ोरियों से लड़ें। अपने शुभ-गुणों के विकास का संकल्प लें। संसार के उत्थान की शुरुआत अपने उत्थान से ही होती है। हम देश की उन्नति एवं विकास का संकल्प लें। देश का प्रत्येक वर्ग राष्ट्र के उत्थान में अपनी भूमिका का सही अर्थ में पालन करे। सार्वजनिक हित को सर्वोपरि मानकर चलें। अथर्ववेद में कहा गया है – ‘शतहस्त समाहर सहस्रहस्त संकिर… अर्थात्, सौ-सौ हाथों से कमा और हज़ार-हज़ार हाथों से बाँट। व्यापारी या कर्मचारी व्यक्तिगत लाभ के लिए ग़लत मार्ग न अपनाएँ। जनहित का संकल्प लें और जनहित को ही सर्वोच्च समझें। जनता के दु:ख-दर्द में भागीदार बनें। जनता को कमज़ोर न बनाएँ और न किसी की विवशता का लाभ उठाएँ, क्योंकि जनता कमज़ोर होगी तो राष्ट्र कमज़ोर होगा। प्रदूषित हो रही भारतीय संस्कृति को बचाने का संकल्प लें। भाषा और संस्कृति की उपेक्षा राष्ट्र की आत्मा की उपेक्षा है। जहाँ जनभाषा की उपेक्षा होगी, वहाँ अन्याय होगा। भारतीय संस्कृति से विमुख पीढ़ी दिग्भ्रमित हो रही है। इस पीढ़ी को उबारने का संकल्प लें। हमने आज यदि इस पीढ़ी के लिए कुछ नहीं किया तो कल हम ही इसके पतन के लिए उत्तरदायी होंगे। जो विकृति बढ़ेगी उससे हम भी पीड़ित होंगे, इसलिए हम समय रहते सचेत होने का संकल्प लें। और अंत में, संकल्प लें “पर्यावरण की रक्षा का”। यदि हम पर्यावरण को बिगाड़ेंगे तो प्रकृति हमें कभी क्षमा नहीं करेगी। हमें प्रकृति के प्रकोप का भाजन बनना पड़ेगा। यह प्रकोप चाहे अतिवृष्टि हो, चाहे अनावृष्टि, चाहे भूकंप, अथवा जल-प्रलय या अन्य विनाशलीला। अतः प्रकृति के साथ हमारे मधुर संबंध हों। हम प्रकृति का पोषण करने का संकल्प लें, शोषण न करें….।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – स्वार्थ की नींव पर रिश्ते ज़िंदा नहीं रहते। नि:स्वार्थ भाव से सबका ध्यान रखें। रिश्तों का महत्व उनको निभाने में है, ढोने में नहीं। वाणी की मिठास पूरे परिवार को एक सूत्र में बाँध सकती है, वहीं कटुता छिन्न-भिन्न भी कर सकती है, अत: सबके साथ मधुर व्यवहार करें। अपने इस व्यवहार को विस्तार दें और इसकी सुगंध पड़ोस में भी जाने दें। सब कुछ बदला जा सकता है, परंतु रिश्ते अथवा पड़ोसी नहीं बदले जा सकते। अत: पड़ोसियों के साथ भी मधुर व्यवहार का संकल्प लें। मधुर व्यवहार से सामाजिक समरसता का विकास होगा। स्वार्थ को नहीं, परमार्थ को महत्व दीजिए। अपने दृष्टिकोण को सेवा धर्म से ओत-प्रोत बना लेने से अन्तःकरण को असाधारण शक्ति प्राप्त होती है। जीवन में पग-पग पर उल्लास बढ़ता जाता है। क्रूरता, कुटिलता, छल, पाखंड से जो मानसिक उद्वेग उत्पन्न होता है वह जीवन को बड़ा ही अव्यवस्थित, अशान्त एवं कष्टमय बना देता है। मानव जीवन में जो आध्यात्मिक अमृत छिपा हुआ है, वह स्वार्थी लोगों को उपलब्ध नहीं हो सकता। जो व्यक्ति अपने ही सुख का ध्यान रखता है, अपनी ही चिन्ता करता है और दूसरों की परवाह नहीं करता, वह विषम विपत्ति में फँस जाता है। सब लोग उससे घृणा करते हैं। कोई भी उसे सच्चे दिल से प्यार नहीं करता। स्वार्थी मनुष्य कुछ सम्पदा इकट्ठी भले ही कर ले, परन्तु वह असल में बहुत घाटे में रहता है। उसकी सारी मानसिक सुख शान्ति नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है। परमार्थ, सेवा, त्याग और निस्वार्थ प्रेम-व्यवहार को अपनी प्रमुख नीति बना लेने से अपना जीवन आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है। शत्रु भी उससे घृणा नहीं करते। सेवा से संतुष्ट हुए अनेक लोगों के आशीर्वाद, सद्भाव, शुभ-संकल्प, देवताओं की भाँति पुष्प वृष्टि करते रहते हैं। अतः जीवन का अमर फल उसी को प्राप्त होता है, जो स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ को अधिक महत्व देता है…।
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