पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य सद्गुरुदेव जी ने कहा – विवेक के प्रकाश में आत्म-अनात्म, नित्य-अनित्य, पवित्र-अपवित्र, जड़-चैतन्य का बोध सहज स्वाभाविक है। अतः आनन्दप्रद-जीवन की प्रथम माँग है – विवेक…! जीवन सार्थकता के लिए सत्संग स्वाध्याय ही श्रेयस्कर है। “सत्संग से व्यक्ति का विवेक जाग जाता है”। जब कोई मूर्छित हो जाता है, तब उसको सचेत करने के लिए जोर से पानी के छींटे भी दिए जाते हैं। जब किसी साधक पर प्रभुकृपा होती है, भगवान भी एक दो बार ऐसा ही कुछ करते हैं। भगवान जब झटकते हैं, तो कालान्तर में जमी हुई धूल और बुद्धि के ऊपर पड़ा हुआ आवरण हट जाता है और धीरे-धीरे विवेक जागने लगता है, मूर्छा खुल जाती है और साधक अपनी साधना में तत्पर हो जाता है। विवेक का सदुपयोग करने से ज्ञान, वैराग्य, भक्ति – तीनों प्राप्त होते हैं। जो आप अपने लिए नहीं चाहते, वह दूसरों के प्रति न करें। यह बुद्धि भगवान ने सब को दी है। हम तो झूठ बोलें, पर दूसरा हम से झूठ न बोले – यह विवेक का दुरूपयोग है। साधकों के लिए सबसे पहले विवेक की आवश्यकता है। शरीर और शरीरी को अलग-अलग जानना विवेक है। गीता का आरम्भ भी शरीर-शरीरी के विवेक से हुआ है। इसी को महत्व देना है, स्वीकार करना है, इस पर दृढ़ रहना है। शरीर का सम्बन्ध अविवेकजन्य है। शरीर मैं नहीं हूँ , शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिए नहीं है- ऐसा अनुभव करना है। इसका ठीक अनुभव होने को तत्वज्ञान कहते हैं। शरीर के साथ भूल से बने हुए सम्बन्ध को मिटाना ही सत्संग है। विवेक में अभ्यास नहीं होता, प्रत्युत विचार होता है। बुद्धि अपनी राय देती है और विवेक उसे तोलकर सही गलत बताता है। अतः विवेक-सम्पन्न व्यक्ति के साथ रहें। स्वविवेक सबसे अच्छा है, नहीं तो ज्ञानी व्यक्ति के पास समय नियोजित कर, समय का अच्छा सदुपयोग हो सकता है। जीवन की सार्थकता के लिए अधिक से अधिक समय आत्मसाधना में लगाना उपयुक्त है। जीवनशैली प्रशस्त बने, व्यस्त रहें पर अस्त-व्यस्त नहीं। लक्ष्य निर्धारित हो तो मानव जीवन सार्थक हो सकता है…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – ज्ञान मृत होता है, उसमें न तो स्वयं की चेतना होती है न स्वयं की सक्रियता; उसे चेतन होने के लिये बुद्धि की आवश्कता होती है और सक्रिय होने के लिये बुद्धि से संयोग की। लेकिन, ज्ञान का सदुपयोग और सुसक्रियता हेतु विवेक की आवश्यकता होती है, केवल विवेक ही उचित-अनुचित में अन्तर करता है, जबकि प्रज्ञा बुद्धि को स्थिर करती है। पुस्तक में बन्द पड़ा ज्ञान मृत ही रहेगा, यदि उसे बुद्धि व विवेक का सामर्थ्य, सहयोग व सक्रियता न मिले। चतुर मनुष्य बुद्धि की साधना कर विवेक से ज्ञान का सदुपयोग करते हैं, मूर्ख मनुष्य ज्ञानी होकर भी बुद्धि के अभाव में उसका उपयोग नहीं कर पाते और जड़ कहे जाते हैं। ज्ञान का दुरूपयोग करने वाले मनुष्यों में विवेक का अभाव होता है। जहाँ ज्ञान दही है, वहीं बुद्धि मथनी है और विवेक उसका घृत होता है। साधक का लक्ष्य आत्म-निरीक्षण, अर्थात् प्राप्त विवेक के प्रकाश में स्वयं के दोषों को देखने की हुई भूल को पुन: न दोहराने का व्रत लेकर, सरल व विश्वासपूर्वक प्रार्थना करना होना चाहिए। जितेन्द्रियता, सेवा, भगवच्चिन्तन और सत्य की खोज अध्यात्म जागृति के लिए श्रद्धा और विवेक से कार्य करना चाहिए। साधु की हर प्रवृत्ति साधनामय हो – चलना, बोलना, सोना, उठना आदि प्रत्येक कार्य विवेकपूर्ण हो। आत्म विकास के लिए ज्ञान और क्रिया का समन्वित प्रयास आवश्यक है। क्षमता के अनुसार त्याग, तपस्या करनी चाहिए। जीवनशैली व दिनचर्या व्यवस्थित हो। नेत्र केवल दृष्टि प्रदान करते हैं; परन्तु हम कहाँ क्या देखते हैं, ये हमारे मन की भावना पर निर्भर करता है। विवेक महत्वपूर्ण चक्षु है। विवेकवान व्यक्ति नया युग लाने में पूरी तरह से सक्षम होता है। अतः जीवन की सार्थकता इसी में है कि व्यक्ति स्व-विवेक के साथ समय का नियोजन करे…।
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