पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – सांसारिक सम्मोहन एवं आकर्षण-प्रलोभन प्रचंड हैं। भगवत-कृपा, दैव-अनुग्रह, सन्त-सन्निधि और सत्संग ही भवतारक साधन हैं…! ईश्वर कृपा का कोई मूल्य नहीं होता। भगवान ने इस अद्भुत संसार की रचना की है। प्रकृति के द्वारा सभी व्यवस्थाओं को सुचारू रूप से नियंत्रित किया गया है। हमें सूर्य चंद्रमा से ऐसा प्रकाश मिलता है कि हमें उसका कोई शुल्क भी नहीं देना पड़ता। सुरम्य-शीतल हवा का आनंद मिलता है। सुंदर पर्वत, वृक्षावली, रमणीय उद्यान सहित अनेक प्राकृतिक अवदान हमें ईश्वर की सौगात के रूप में मिले हैं; मगर हम इन चीजों के लिए ईश्वर का आभार नहीं करते। यह गहन चिंतन का विषय है कि जो ईश्वर हमारे लिए सब कुछ करे, उसके लिए हम धन्यवाद का एक शब्द भी नहीं कहें। हम ईश्वरीय कृपा का साधुवाद ईश्वर का स्मरण करके कर सकते हैं….।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने युवा पीढ़ी को धर्म की ओर आकर्षित करते हुए कहा – कुछ युवा असंगत तर्क करते हैं और सवाल उठाते हैं कि ईश्वर कौन से महल में रहता है? वह क्या-क्या खाता है? कैसे-कैसे वस्त्र धारण करता है? आज तक किसी ने उसको देखा है क्या? इन युवाओं के लिए यही संदेश है कि ईश्वर का प्रमाण अनुभूति है, दर्शन नहीं। स्वरूप नहीं, प्रतीति है। उसके प्रति ऐसा विश्वास है जो कभी खंडित नहीं होता। यदि हम हरिमय हो जाएं तो हरि हमारी हर दुविधा का हरण करता है। वास्तव में सत्संग धर्म के मार्ग पर चलना सिखाता है और धर्म कभी भी असत्य के मार्ग पर नहीं चलने देता। इससे व्यक्ति की अपेक्षाएं कम होती हैं। अपेक्षाएं जब कम होती है तब दुविधाएं भी नहीं होती। इसलिए धर्म ही सभी समस्याओं का निवारण है। परमात्मा की व्याख्या का सामर्थ्य शब्दों में नहीं है। निराकार ईश्वर की व्याख्या भक्ति में है…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – यदि ईश्वर की जिज्ञासा है उसे पाने, देखने और अनुभव की तो आत्मा द्वारा निर्देशित सद्गुणों की उपासना करिये। उन्हीं का विकास और अनुसरण करिये और उसी रूप में उसे पाने का प्रयत्न भी। ईश्वर को पाने का यह सबसे सही, सरल और सुन्दर मार्ग है। ईश्वर का दर्शन चर्मचक्षुओं से नहीं अन्तरात्मा द्वारा होता है। सत्कर्मों द्वारा आत्मा को विस्तृत व्यापक और निष्कलुष बनाइये। ईश्वर की झाँकी स्वतः ही उसमें जगमगा उठेगी। आत्मा का विकास आत्म-विश्वास द्वारा होता है। अपने को शरीर न मानकर आत्मा मानिये और उस रूप में अपने को ईश्वर का केन्द्र, उसका निवास और उसी का अंश विश्वास कीजिये। ऐसा विश्वास दृढ़ होते ही आपमें आत्म-गरिमा का भाव, अपने महत्व का गौरव, अपने उत्तरदायित्व की पुनीतिमा प्राप्त हो जायेगी। तब आप क्षुद्र से महान, तुच्छ से श्रेष्ठ बनकर जीवन से स्वयं ईश्वरत्व की ओर बढ़ने लगेंगे। वासनाएं, विषमताएं और अज्ञान की बाधक श्रृंखलाएं अपने-आप टूट कर गिर जायेंगी। सद्गुणों और सदाशयों से आपकी अन्तरात्मा विभूषित हो उठेगी और आप ईश्वर प्राप्ति के अपने लक्ष्य की ओर उन्मुख हो चलेंगे….।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – संत कबीरदास और सूरदास ने ईश्वर की अनुभूति को विभिन्न प्रतीकों के रूप में व्यक्त किया है। संत सूरदास कहते हैं कि जैसे गूंगे को मीठा फल बहुत अच्छा लगता है, लेकिन वह उसकी अभिव्यक्ति नहीं कर सकता, कुछ वैसी ही स्थिति साधक की भी होती है। वह भी अकथनीय आनंद-रस में डूब जाता है।
आनंद की उपलब्धि के बाद सुख निरर्थक हो जाता है। आनंद की राह सत्संग से होकर ही तो जाती है। सत्संग का अर्थ है – सत्य का सामीप्य या सत् को जानने का प्रयास। आजकल टीवी संस्कृति के पनपने के बाद सत्संग के भी मायने बदल गए हैं। कई चैनल संतों की कथाओं तथा उनके उपदेशों को ‘रिले’ कर रहे हैं और उन्हें सुनकर लोग सामूहिक सत्संग में जाने के प्रति उदासीन हो रहे हैं। ‘कुछ न करने से, कुछ करना बेहतर है,’ इस कहावत को स्वीकारते हुए तो यह ठीक-सा लगता है, लेकिन इससे सत्संग का उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पाता। सत्संग का अर्थ है – सद्गुरु से वार्तालाप, अनुभवी साधक के अनुभवों का श्रवण, सद्शास्त्रों का बिना किसी सांप्रदायिक व्याख्या के निष्पक्ष भाव से श्रवण। इससे जीवन में बदलाव आता है। एक क्रांति पैदा होती है सत्संग से। सत्संग का अर्थ है – सत्य की खोज…।
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