।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – आध्यात्मिक अंतस का निर्माण होते ही आनन्द-स्फूर्ति, आह्लाद, ऊर्जा, आत्म-सन्तोष और सहजता का अनुभव होने लगेगा, अतः स्वयं की ओर बढ़ें…! अध्यात्म का मानव जीवन में विशेष स्थान है। इसके बिना मानव जीवन की परिकल्पना असंभव है। आध्यात्मिक शिक्षाओं को जीवन में उतार कर नए युग का सूत्रपात कर आपसी प्रेम सद्भाव से जीवन में हम अभूतपूर्व परिवर्तन कर सकते हैं। परमपिता परमात्मा से संबंध जोड़कर हम अपनी झोली ज्ञान रत्नों व दिव्य गुणों से भर सकते हैं। परमात्मा निर्मल मन वालों को सहज रूप से प्राप्त हो जाते हैं। उनकी कृपा से मनुष्य का जीवन महान और सार्थक बनता है। “आचार्यश्री” जी के अनुसार गुरु, गो, गंगा, गीता और गायत्री वह पांच तत्व हैं, जिनको हासिल कर भक्त में स्वयं अध्यात्म जागृत हो जाता है। उन्होंने आगे कहा कि अध्यात्म मनुष्य का आंतरिक भोजन है। अध्यात्म का महत्व बताते हुए “पूज्यश्री” ने कहा कि यह मनुष्य की इच्छाओं को शांत करता है। इसके बाद ही व्यक्ति को वैराग्य का गुण प्राप्त होता है। उन्होंने कहा कि उस भक्त का जीवन सार्थक हो जाता है जिसे भक्ति योग, ज्ञान योग और कर्मयोग मिल जाता है। उनके अनुसार सत्य का अनुसरण करने पर यह गुण हासिल किए जा सकते हैं….।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – पिछले कुछ समय से अध्यात्म के क्षेत्र में बाजारवाद का प्रभाव बढ़ा है। इसी वजह से अध्यात्म के क्षेत्र में भी अवमूल्यन हुआ है। “आचार्यश्री” जी के अनुसार अध्यात्म के क्षेत्र में बाजारवाद ने प्रभाव डाला है और यह चिंता का विषय है। आत्मा के विस्मरण से ही विश्व में अशान्ति आदि समस्त समस्यायें उत्पन्न हुई है। अत: स्वस्थ समाज के लिए आत्म जागरण जरूरी है। उन्होंने कहा कि यह आर्थिक युग है। इसमें पदार्थ की अधिक इच्छा के कारण व्यक्ति अशांत रहता है। अनियंत्रित भोगवाद के कारण स्वस्थ समाज का निर्माण नहीं हो पा रहा है। इसके लिए हर मनुष्य को अनुशासित व संस्कारित होना होगा, तभी वह समाज व सृष्टि के लिए उपयोगी होगा और व्यक्ति को संस्कारित करना ही अध्यात्म का काम है। उन्होंने कहा कि अपने जीवन को सफल बनाने के लिए, एक सफल व्यक्तित्व निर्माण हेतु मन, बुद्धि, विवेक और समस्त इंद्रियों को ईश्वर में स्थिर करें। श्रवण, मनन, स्मरण, आत्म संयम और ईश्वरीय स्वरूप का नित्य ध्यान कर अपने अन्तःकरण को शुद्ध करें…।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – ज्ञान के माध्यम से जानें आत्मा के स्वरूप को। परमात्मा ज्ञान स्वरूप है, ज्ञान की पूर्णता में ही ब्रह्म की प्राप्ति यह मोह से भरा हुआ संसार एक स्वप्न की ही तरह है। यह तब तक ही सत्य प्रतीत होता है, जब तक व्यक्ति अज्ञान रूपी निंद्रा में सो रहा होता है, परन्तु जाग जाने पर इसकी कोई सत्ता नहीं रहती। आत्मा अज्ञान के कारण ही सीमित प्रतीत होती है, परन्तु जब अज्ञान मिट जाता है, तब आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। जैसे – बादलों के हट जाने पर सूर्य दिखाई देता है। वैसे ही अज्ञान के मिटते ही जीव अपने स्वरूप को उपलब्ध हो जाता है। “पूज्यश्री” जी के अनुसार भगवान तो ओस की बूंद जैसे हैं। उनकी न तो माला बनाई जा सकती है और न ही उन्हें कैद करके रखा जा सकता है। उन्हें अपने में अनुभव कर अपनी चेतना को जगाया जा सकता है। परमशक्ति तो खुशबू की तरह है जिसे कैद नहीं किया जा सकता, बल्कि उसे तो अपने में पैदा कर स्वयं उसका आनंद लिया जा सकता है….।
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