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नई दिल्ली 27 अप्रैल 2025 : नई दिल्ली में ‘दि हिंदू मेनिफेस्टो‘ पुस्तक का औपचारिक विमोचन किया गया। कार्यक्रम की शुरुआत पहलगाम आतंकी हमले में मृतकों को श्रद्धांजलि स्वरूप दो मिनट के मौन के साथ हुई। ‘दि हिंदू मेनिफेस्टो’ स्वामी विज्ञानानंद के वर्षों के शोध और चिंतन का परिणाम है, जो प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा को समकालीन संदर्भ में पुनर्परिभाषित करता है।
हिंदू अध्ययन केंद्र की संयुक्त निदेशक डॉ. प्रेरणा मल्होत्रा ने स्वामी विज्ञानानंद का परिचय देते हुए उन्हें आदि शंकराचार्य के पदचिह्नों पर चलने वाले तपस्वी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की परंपरा का अनुयायी बताया। स्वामी विज्ञानानंद ने अपने उद्बोधन में कहा कि हिंदू चिंतन परंपरा सदा से सनातन सिद्धांतों पर आधारित समयानुकूल समाधान प्रस्तुत करती रही है।
पुस्तक में आठ मूल सूत्र प्रस्तुत किए गए हैं — सभी के लिए समृद्धि, राष्ट्रीय सुरक्षा, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, उत्तरदायी लोकतंत्र, महिलाओं का सम्मान, सामाजिक समरसता, प्रकृति की पावनता, तथा मातृभूमि और विरासत के प्रति श्रद्धा। स्वामी विज्ञानानंद ने कहा कि हिंदू परंपरा पश्चिमी पूंजीवाद या समाजवाद के बजाय एक संतुलित आर्थिक मॉडल को अपनाती है, जिसमें संपत्ति सृजन और न्यायपूर्ण वितरण दोनों का महत्व है।
उन्होंने बल दिया कि सच्चा धर्म केवल क्षमा नहीं, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर शत्रु का संहार करने की भी शिक्षा देता है। उन्होंने औपनिवेशिक काल में भारतीय शिक्षा प्रणाली के विनाश और आज गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की अनिवार्यता पर भी प्रकाश डाला। हिंदू सभ्यता उत्तरदायी शासन और जनभागीदारी आधारित दृष्टिकोण की समर्थक रही है, जो निष्क्रिय स्वीकृति की मानसिकता को अस्वीकार करती है।
पुस्तक का दूसरा भाग सभ्यतागत पुनर्जागरण की विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत करता है — जिसमें महिलाओं की गरिमा, धर्म आधारित सामाजिक समरसता, प्रकृति के प्रति श्रद्धा, भारत भूमि की पावनता, और सांस्कृतिक एकता के महत्व पर बल दिया गया है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने भी कार्यक्रम में संबोधित किया। उन्होंने कहा कि भौतिकतावादी पश्चिमी विकास मॉडल विफल रहे हैं और उन्होंने असंतोष व पर्यावरण संकट को जन्म दिया है। डॉ. भागवत ने भारत के सभ्यतागत दृष्टिकोण को “तीसरे मार्ग” के रूप में प्रस्तुत किया — जो भौतिक और आध्यात्मिक कल्याण का संतुलन बनाता है।
डॉ. भागवत ने कहा कि हिंदुओं को पहले स्वयं ‘दि हिंदू मेनिफेस्टो’ में उल्लेखित सिद्धांतों को अपने जीवन में अपनाना चाहिए। उन्होंने ऐतिहासिक अनुभवों का उल्लेख करते हुए कहा कि भारत ने बिना आक्रामकता के अपने प्रभाव का विस्तार किया था, लेकिन आत्मसंतोष और संकीर्णता ने धर्म के मूल्यों की उपेक्षा करवाई।
अंत में, उन्होंने उडुपी में हुए संत सम्मलेन का हवाला देते हुए कहा कि किसी भी प्रकार का भेदभाव धार्मिक मान्यता में स्वीकार्य नहीं है, और धर्म का वास्तविक स्वरूप सार्वभौमिक सच्चाइयों और मानवता की सेवा में निहित है।
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