औरंगजेब को हीरो बताने वाले अबू आजमी पीछे हट गए, लेकिन अखिलेश यादव क्यों आगे बढ़ रहे हैं?

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समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,5 मार्च।
महाराष्ट्र के नेता अबू आजमी द्वारा औरंगजेब को लेकर दिए गए विवादित बयान के बाद देशभर में राजनीति गर्मा गई थी। जब इस बयान पर भारी विरोध हुआ, तो आजमी ने सफाई देते हुए अपने कदम पीछे खींच लिए। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि समाजवादी पार्टी (सपा) प्रमुख अखिलेश यादव इस मुद्दे पर एक अलग ही रुख अपनाते दिख रहे हैं। सवाल यह उठता है कि जब अबू आजमी जैसे नेता बैकफुट पर जा रहे हैं, तो अखिलेश यादव इस पर क्यों आगे बढ़ रहे हैं?

अबू आजमी का बयान और सफाई

अबू आजमी ने एक बयान में औरंगजेब को एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व बताते हुए उसकी तुलना अन्य शासकों से कर दी थी, जिससे हिंदू संगठनों और बीजेपी ने कड़ी आपत्ति जताई। महाराष्ट्र में औरंगजेब को लेकर पहले भी कई बार विवाद उठ चुके हैं, खासकर शिवाजी महाराज के राज्य में इस तरह की बातें करना राजनीति को और अधिक संवेदनशील बना देता है। आलोचना के बाद अबू आजमी ने कहा कि उनका मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं था और उन्होंने सफाई दी कि वे केवल इतिहास की बात कर रहे थे।

अखिलेश यादव का रुख और उनकी रणनीति

अब सवाल उठता है कि जब अबू आजमी पीछे हट गए, तो अखिलेश यादव क्यों लगातार ऐसे मुद्दों पर अपनी स्थिति को स्पष्ट करने से बचते हुए आगे बढ़ते दिख रहे हैं? दरअसल, अखिलेश यादव का राजनीति करने का तरीका थोड़ा अलग है। वे ध्रुवीकरण की राजनीति का जवाब सामाजिक न्याय और मुस्लिम-यादव (MY) समीकरण को मजबूत करने के जरिए देते हैं।

  1. मुस्लिम वोट बैंक को साधने की कोशिश
    समाजवादी पार्टी का एक बड़ा वोट बैंक मुस्लिम समुदाय से आता है। अखिलेश यादव को पता है कि अगर वे इस मुद्दे पर ज्यादा सख्ती से प्रतिक्रिया देंगे, तो उनका कोर वोट बैंक प्रभावित हो सकता है। इसलिए वे सीधा समर्थन या विरोध करने के बजाय, इसे “बीजेपी द्वारा गढ़ा गया मुद्दा” बताकर किनारा कर लेते हैं।

  2. बीजेपी के नैरेटिव का जवाब
    बीजेपी अक्सर सपा पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाती रही है। अखिलेश यादव इस आरोप का जवाब देने के बजाय, इसे इग्नोर कर अपने सामाजिक न्याय के एजेंडे पर ध्यान देना चाहते हैं। वे खुद को विकास और जातिगत राजनीति के मुद्दों पर केंद्रित रखना चाहते हैं, जिससे हिंदू और मुस्लिम दोनों मतदाताओं को साधा जा सके।

  3. शिवपाल यादव और ओमप्रकाश राजभर जैसे नेताओं का दबाव
    अखिलेश यादव के सहयोगी दलों में कुछ ऐसे नेता हैं जो हिंदू वोटों पर भी प्रभाव रखते हैं, जैसे शिवपाल यादव और ओमप्रकाश राजभर। अगर अखिलेश इस मुद्दे पर खुलकर मुस्लिम तुष्टिकरण का संदेश देते हैं, तो उनके गठबंधन को नुकसान हो सकता है। इसलिए वे इसे सांप्रदायिक बहस से बचाने की रणनीति अपनाते हैं।

क्या यह रणनीति फायदेमंद होगी?

अखिलेश यादव की यह रणनीति कुछ हद तक कारगर हो सकती है, लेकिन यह भी सच है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में सांप्रदायिक मुद्दे चुनावी नतीजों पर असर डालते हैं। बीजेपी इस तरह के बयानों का इस्तेमाल हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के लिए करती है, जिससे समाजवादी पार्टी को नुकसान हो सकता है।

अखिलेश यादव को तय करना होगा कि वे केवल एक विशेष वोट बैंक के सहारे आगे बढ़ना चाहते हैं या फिर सर्वसमाज की राजनीति करेंगे। यदि वे अबू आजमी की तरह बैकफुट पर नहीं आते और अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं करते, तो बीजेपी इसे उनके खिलाफ एक बड़ा चुनावी मुद्दा बना सकती है।

निष्कर्ष

अबू आजमी ने बयान दिया और फिर दबाव में आकर पीछे हट गए, लेकिन अखिलेश यादव इस मामले पर सावधानी से आगे बढ़ते दिख रहे हैं। उनकी रणनीति साफ है—वे अपने कोर वोट बैंक को खोना नहीं चाहते और बीजेपी के नैरेटिव में उलझने से बच रहे हैं। अब देखना होगा कि उनकी यह रणनीति आगामी चुनावों में कितनी प्रभावी साबित होती है।

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