एक दिन मैं मंदिर गया था। पूजा हो रही थी। , मूर्तियों के सामने लोग सिर झुकाए जा रहे थे। एक वृद्ध साथ थे, वे बोले, ‘धर्म में लोगों को अब श्रद्धा नहीं रही। मंदिर में भी कम ही लोग दिखाई पड़ते हैं।’ मैंने कहा, ‘मंदिर में धर्म कहां है?’ मनुष्य भी कैसा आत्मवंचक है, अपने ही हाथों बनाई मूर्तियों को भगवान समझ स्वयं को धोखा देता है। मनुष्य के हाथों और मनुष्य के मन से जो भी रचित है, वह धर्म नहीं है। मंदिरों में बैठी मूर्तियां भगवान की नहीं, मनुष्य की ही हैं। शास्त्रों में लिखा हुआ मनुष्य की अभिलाषाओं और विचारणाओं का ही प्रतिफलन है, सत्य का अंतदर्शन नहीं। सत्य की कोई मूर्ति संभव नहीं हैं, क्योंकि वह असीम है, अनन्त और अमूर्त है। न उसका कोई रूप है, न धारणा, न नाम। आकार देते ही वह अनुपस्थित हो जाता है। उसे पाने के लिए सब मूर्तियां और सब मूर्त धारणाएं छोड़ देनी पड़ती हैं। स्व-निर्मित कल्पनाओं के सारे जाल तोड़ देने पड़ते हैं। वह असृष्ट तब प्रकट होता है, जब मनुष्य की चेतना उसकी मनः सृष्ट कारा से मुक्त हो जाती है।
वस्तुंतः उसे पाने की मंदिर बनाने नहीं, करनी होती हैं। आकार के आग्रह खोने पड़ते हैं, ताकि निराकार का आगमन हो सके। चित्त से मूर्त के हटते ही वह अमूर्त प्रकट हो जाता है। वह तो था ही, केवल मूर्तियों और मूर्त में दब गया था। जैसे किसी कक्ष में सामान भर देने से रिक्त स्थान दब जाता है। सामान हटाओ और वह जहां था, वही है। ऐसा ही है, सत्य। मन को खाली करो वह है।
-ओशो रजनीश
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