क्या अब भी पांच ट्रिलियन इकॉनमी बन पायेगा भारत ?

न्यूज़ डेस्क : अगर आप भारतीय अर्थव्यवस्था पर क़रीब से नज़र रखते हैं या इससे किसी न किसी तरह से प्रभावित होते हैं तो सरकार ने आने वाले समय के बारे में दो ख़ास मुद्दों पर स्पष्टीकरण दिया है l भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार प्रोफ़ेसर केवी सुब्रमण्यन ने इस बारे में  लंबी बातचीत की है ;-

 

 

पहला ये कि सरकार विशेष आर्थिक पैकेज लाने की तैयारी कर रही है जिसका मक़सद छोटे और मंझोले उद्योगों में पैसे की तंगी दूर करना है. उन्हें वापस पटरी पर लाना है और अपने पैरों पर खड़ा करना है.

 

लेकिन सरकार फ़िलहाल ये बताने के लिए तैयार नहीं दिखती कि यह पैकेज कब लाया जाएगा. और यही इसका दूसरा पहलू है.

 

प्रोफ़ेसर केवी सुब्रमण्यन कहते हैं, “इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हम इसकी घोषणा अभी करते हैं या बाद में. क्योंकि लॉकडाउन की वजह से आर्थिक गतिविधियां तो अभी किसी सूरत में शुरू होने वाली नहीं हैं. लॉकडाउन ने हमें अच्छे और व्यापक पैकेज तैयार करने के लिए समय दिया है. इसके अलावा हमारे पास बहुत सारे सुझाव आए हैं. जब हमने उन्हें इकट्ठा किया तो पावर प्वॉयंट प्रेजेंटेशन पर तक़रीबन 200 स्लाइड्स बन गईं. इसलिए उन्हें समझने और उनका विश्लेषण करने में वक़्त लगेगा. जब लॉकडाउन हटेगा तो हम इस आर्थिक पैकेज के साथ तैयार होंगे.”

 

रोज़गार और राहत : उनका क्या होगा जिन्हें मौजूदा हालात की वजह से वित्तीय संकट का सामना करना पड़ रहा है या फिर जिनकी नौकरियां छिन गई हैं रहे हैं?

प्रोफ़ेसर केवी सुब्रमण्यन बताते हैं, “अमरीका में भी बेरोज़गारी अपने ऐतिहासिक स्तर पर है. ये समस्या केवल भारत में नहीं है. साल 1918 की स्पैनिश फ़्लू महामारी का रिसर्च ये बताता है कि ज़िंदगियां उन्हीं जगहों पर बचाई जा सकीं जहां हालात सामान्य होने पर रोज़गार और समृद्धि वापस लौटी थी. हमें आर्थिक नुक़सान होने जा रहा है और इसे टाला नहीं जा सकता. मान लीजिए कि लॉकडाउन नहीं लगाया गया होता. तो भी लोग आर्थिक गतिविधियों से दूर रहते और इसका नतीजा भी देखने को मिलता. लंबे समय की बात करें तो जब चीज़ें वापस पटरी पर लौटने लगेंगी तो फ़ायदा उन्हीं को होगा जो स्वस्थ और सुरक्षित होंगे.”

 

अगर इससे भी बात न बन पाई तो क्या होगा?

भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार कहते हैं, “हमने 26 मार्च के पहले ही समाज के कमज़ोर तबक़ों के लिए उठाए गए क़दमों की घोषणा कर दी है. इसके अलावा मैं एक और दिलचस्प बात का ज़िक्र करना चाहूंगा जो हमारे सामने आया है. जन धन योजना के तहत खोले गए बैंक खातों में एवरेज बैलेंस बढ़कर 15 हज़ार करोड़ रुपया हो गया है. नक़द सहायता के रूप में सरकार जो पैसा ट्रांसफ़र कर रही है, लोग उसे लेने के लिए बैंक नहीं आ रहे हैं. यही वजह है कि हमारे राहत पैकेज में कमज़ोर तबक़ों की बुनियादी ज़रूरतों का ख़्याल रखा गया है. हम उन्हें खाद्यान्न और दाल मुहैया करा रहे हैं. अगर लोग बहुत परेशान होते तो उन्होंने अपने खातों से पैसा निकाल लिया होता.”

 

एक सच ये भी है कि जब से सरकार ने लॉकडाउन की घोषणा की है, राशन पाने, पर्याप्त खाद्यान्न, ख़राब वितरण को लेकर लोगों की शिकायतें मिलती रही हैं.

 

सोशल डिस्टेंसिंग के कड़े नियमों की वजह से लोगों का घरों से निकलना मुश्किल हो गया है.

 

प्रोफ़ेसर केवी सुब्रमण्यन बताते हैं, “हम 1.4 अरब की आबादी वाले देश हैं. अगर कुछ हज़ार लोगों को दिक़्क़त हो रही है तो मैं ये नहीं कहूंगा कि इतना तो चलता है. लेकिन अगर ऐसे दस हज़ार मामले भी हैं तो ये हमारी कुल आबादी का बहुत छोटा हिस्सा है.”

 

सरकार की इस बात को लेकर भी आलोचना हो रही है कि वो अर्थव्यवस्था बचाने के लिए उतना ख़र्च नहीं कर रही है जितना कि उसे करना चाहिए था.

 

इंडियन स्कूल ऑफ़ बिज़नेस (आईएसबी) के शेखर तोमर, सेंटर फ़ॉर एडवांस फ़िनांशियल रिसर्च एंड लर्निंग (सीएएफ़आरएएल, रिज़र्व बैंक द्वारा गठित एक स्वतंत्र निकाय) के अनुग्रह बालाजी और गौतम उडुपा की दलील है कि कोविड-19 के बाद भारत अपनी जीडीपी का 0.8 फ़ीसदी ही खर्च कर रहा है.

 

कोविड-19 की महामारी से बने हालात में सरकारी ख़र्चों का वैश्विक औसत पांच फ़ीसदी है. भारत इस पैमाने पर बहुत नीचे है.

प्रोफ़ेसर केवी सुब्रमण्यन की राय में ये आकलन ग़लत है.

मुख्य आर्थिक सलाहकार कहते हैं, “दुनिया भर में सरकारी ख़र्चे का वैश्विक औसत पांच फ़ीसदी है, ये कहना ग़लत है. हमने इसका अध्ययन किया है. जब हम इसकी तुलना करते हैं तो दूसरे फ़ैक्टर्स के बारे में भी सोचने की ज़रूरत है. भारत जैसी उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में जीडीपी के अनुपात में बहुत कम टैक्स लिया जाता है. हम इसकी तुलना अमरीका और ब्रिटेन से नहीं कर सकते. इसे ख़र्च करने की हमारी क्षमता पर नकारात्मक असर पड़ता है. सॉवरेन रेटिंग्स (किसी देश में निवेश से जुड़े ख़तरों और राजनीतिक जोखिम का पैमाना) पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है क्योंकि पेंशन फंड्स, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश इस पर निर्भर करता है. ये वो फ़ैक्टर्स हैं जिनका असर पड़ता है और ये रुकावट डालते हैं.”

 

क्या भारत साल 2024 तक पांच ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी बनने की उम्मीद अभी भी कर सकता है? इसके अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ये भी कहा था कि उनकी सरकार का लक्ष्य किसानों की आमदनी साल 2022 तक दोगुनी करने का है. ये वादे वो बार-बार दोहराते रहे हैं. लेकिन इस महामारी से इन लक्ष्यों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

 

प्रोफ़ेसर सुब्रमण्यन बताते हैं, “हमारा फ़ोकस केवल इसी बात पर होना चाहिए कि कोविड-19 की महामारी का हमारे स्वास्थ्य पर सबसे से कम असर पड़े और हम अच्छे से उबर जाएं. अनिश्चितताओं से भरी इस दुनिया में कभी-कभी चीज़ों को फिर से जांचने-परखने की ज़रूरत पड़ती है लेकिन फ़िलहाल हम पर जो ज़िम्मेदारी है, उस पर हम फ़ोकस बनाए रखें.”

 

कोरोना संकट से पहले की दुविधा

कोविड-19 की महामारी का भारत पर असर पड़ने से पहले, एक फ़रवरी, 2020 को नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफ़िस ने शुरुआती अनुमान के आंकड़े जारी किए थे, जिसमें बताया गया था कि मार्च, 2020 में ख़त्म होने वाले वित्तीय वर्ष में भारत का विकास पांच फ़ीसदी रहने वाला है.

 

पिछले 11 सालों में भारत के विकास दर का ये सबसे निचला स्तर है. इससे पहले की तिमाहियों में आर्थिक सुस्ती के लक्षण दिखने लगे थे.

हालांकि बाद में जारी किए गए आर्थिक सर्वे में सकल घरेलू उत्पाद में 6 से 6.5 फ़ीसदी के हिसाब से विकास दर में उछाल आने का अनुमान पेश किया था.

 

इस आर्थिक सर्वे को मुख्य आर्थिक सलाहकार ने ही तैयार किया था.

इसके साथ ही ये सवाल पैदा होता है कि पहले से ही सुस्ती का सामना कर रही अर्थव्यवस्था ने क्या कोविड-19 के कारण बने हालात का सामना करने में भारत की मुश्किलें नहीं बढ़ा दी हैं?

प्रोफ़ेसर सुब्रमण्यन जवाब देते हैं, “हालात उतने भी बुरे नहीं थे. सच तो ये है कि फ़रवरी में ही अर्थव्यवस्था में सुधार के लक्षण दिखने लगे थे. हां, हमारा फिनांशियल सेक्टर ज़रूर कमज़ोर था लेकिन इसकी वजह बैड लोन्स (वैसे कर्ज जिनकी वसूली की संभावना न रहे) और क्रोनी लेंडिंग (जब कर्ज योग्यता के बजाय संबंधों के आधार पर दिए जाते हों) थे. विकास की हमारी संभावनाएं उज्ज्वल है. ये सही है कि विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं की सॉवरेन रेटिंग उतनी अच्छी नहीं है. इसका असर पड़ा है. लेकिन उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, वो हमारे लिए भी हैं. हमारी अर्थव्यवस्था की कोरोना संकट की शुरुआत से पहले जो भी स्थिति रही हो, मैं नहीं मानता कि इस वजह से हमारे हाथ बंधे हुए हैं.”

तीन मई को जब लॉकडाउन ख़त्म होने की तारीख़ आएगी, बतौर मुख्य आर्थिक सलाहकार प्रोफ़ेसर सुब्रमण्यन की क्या सलाह है?

 

वो कहते हैं, “हमें सिलसिलेवार तरीक़े से एहतियात बरतते हुए लॉकडाउन हटाने की ज़रूरत पड़ेगी. कुछ बुनियादी बातों का हमें ख़्याल रखना होगा. हॉटस्पॉट वाले इलाक़ों में लॉकडाउन बढ़ाए जाने की ज़रूरत होगी. वैसे उद्योग या सेक्टर्स जहां लोगों को एक दूसरे से ज़्यादा मिलने-जुलने की ज़रूरत होती है, उन्हें इंतज़ार करना होगा. सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों पर हमें कड़ाई से अमल करना होगा. और किसी इंडस्ट्री या सेक्टर को छूट देने का फ़ैसला इस आधार पर होना चाहिए कि अर्थव्यवस्था में उसका कितना योगदान है.”

 

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