जब शरीर चंचल और मन स्थिर हो कार्य तभी सम्पन्न होता है : स्वामी अवधेशानन्दं जी महाराज

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
           ।। श्री: कृपा ।।
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 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – एकाग्रता भौतिक-आध्यात्मिक उत्कर्ष-उन्नयन और जीवन-सिद्धि में सहायक उपक्रम हैं। एकाग्रचित्त एवं सर्वतोभावेन साधक गुरु कृपा और भगवद-अनुग्रह को सहज अनुभव करने लगता है। जीवन में एकाग्रता एवं भगवदीय स्मृति भवतारक साधन हैं ..! पूर्ण एकाग्रता तथा संलग्नता के बिना सफलता नहीं मिलती। एकाग्रता व अभ्यास के द्वारा असंभव भी संभव हो जाता है। संसार का कोई भी कार्य तभी सम्पन्न होता है जब शरीर चंचल और मन स्थिर हो, इसलिए समय रहते लक्ष्य तय करना अनिवार्य है। बिना लक्ष्य निर्धारण के जीवन में कभी भी बड़ी उपलब्धि हासिल नही कर सकते। लक्ष्य प्राप्ति के लिए छोटे-छोटे लक्ष्यों में बाँटकर बड़े लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए मन का एकाग्र होना अनिवार्य है। एकाग्र मन से ही सफलता प्राप्त होती है। इसके लिए ये जानना आवश्यक है कि एकाग्रता क्या है? “हमारे मन का किसी विषय वस्तु पर स्थिर हो जाना ही एकाग्रता है”।  एकाग्रता क्यों जरूरी है? किसी भी श्रेष्ठ कार्य को करने के लिए अतिरिक्त ऊर्जा की जरूरत पड़ती है और एकाग्रता ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत है।
एकाग्रचित व्यक्ति कम बुद्धि होने पर भी बड़े से बड़े कार्यों को अंजाम दे सकता है। जिसने भी दुनियां में महत्ता प्राप्त की है उसने एकाग्रता से ही की है। एकाग्रचित इंसान के संकल्पो में बहुत बल होता है जो लोग एकाग्र होते हैं वे अपने संकल्पों से ही अपने व दूसरों के कल्याण का रास्ता खोज लेते हैं। एकाग्रता से ही मन को मजबूत बनाया जा सकता है। मन की मजबूती मनुष्य को सफल बनाती है। एकाग्रचित व्यक्ति शीघ्र सफलता प्राप्त करता है। मन एकाग्र होने पर ही तप और मंत्रो की सिद्धि होती है। एकाग्रता के पीछे सफलता दौड़ी चली आती है। अतः सफलता प्राप्त करने के लिए एकाग्रता अनिवार्य है। इस प्रकार किसी भी कार्य में सफलता और असफलता हमारी एकाग्रता पर निर्भर करती है। कार्य को पुरा करने के लिए एकाग्रता सबसे पहली सीढ़ी है। जब तक आप एकाग्र नहीं होंगे तब तक आप कोई भी कार्य पुरा नहीं कर सकते। एकाग्रता से ही मानव को चरम लक्ष्य प्राप्त हो सकता है। इसलिए मनुष्य को शारीरिक व मानसिक दोनों ही रूप से चलना होता है, तभी जाकर पूर्ण सफलता प्राप्त होती है और ऐसे कर्म प्रधान लोग ही इतिहास रचते हैं …।
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 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – जिनमें एकाग्रता की कमी होती है वे बहुत चिंतित, उदास, चिड़चिड़े और सहमे से रहते हैं। कुछ अपराध भावना व हीन भावना के शिकार भी हो जाते हैं। आत्मविश्वास की कमी, असुरक्षा की भावना, कुंठा, गुस्सा, चिड़चिड़ापन व घबराहट बढ़ जाती है। ध्यान भटकने की समस्या में प्रायः आत्म नियंत्रण व व्यवहार नियंत्रण का अभाव होता है। ध्यान भटकने से अक्सर गलतियां होने की संभावना रहती है। जिनका ध्यान जल्दी बंट जाता है, उनकी मनोदशा में भी जल्दी-जल्दी उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। मन को अपने वश में किए बिना संसार का कोई भी काम करना असंभव है, क्योंकि मन की एकाग्रता ही सफलता की कुंजी है। इन गुणों के कारण ही ऋषि-मुनियों का आदर किया जाता है। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – चित की एकाग्रता, मन की निर्मलता और बुद्धि का अटल निश्चय एक बड़ी साधना है। एकाग्रता को बढ़ाने के लिए आपका दृढ़ निश्चयी होना बहुत जरुरी होता है। जीवन के हर हिस्से में आपको एकाग्रता की आवश्यकता होती है, क्योंकि एकाग्रता से अभिप्राय है कि आप अपने दिमाग को गलत और अनचाहे विचार से बचायें रखें, साथ ही अपना सारा ध्यान एक जगह पर लगाएँ रखें।
इसके लिए आपको अपनी सारी क्षमताओं को इक्कठा करना होता है, जिससे आपके मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है और इसी शक्ति को एकाग्रता की शक्ति ( Power of Concentration ) कहा जाता है। एकाग्रता ध्यान का एक प्रतिफल है। ध्यान में एकाग्रता का विकेंद्रीकर्ण हो जाता है। आपकी शायद यह धारणा हो कि ध्यान का अर्थ है – मन को एक स्थान पर एकाग्र कर लेना है; यह उचित नहीं है। वास्तव में ध्यान एकाग्रता के विपरीत है। आप को काम करते समय एकाग्रता की आवश्यकता होती है, लेकिन ध्यान करने के लिए आपको एकाग्रता की आवश्यकता नहीं है। सतर्कता और मन का केंद्रित होना ध्यान के ही परिणाम हैं। जितनी जल्दी हम अपनी स्मृतियों को मिटा दें, उतनी ही जल्दी हमारा मन एकाग्र हो सकता है। स्वच्छ व निर्मल मन शीघ्रता से एकाग्र हो सकता है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी श्रीरामचरितमानस में कहा है कि – “बिगरी जन्म अनेक की, सुधरत पल लगे ना आध …”।

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