पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – जल का प्रत्येक कण अमृत-तुल्य है ! अतः जल में निहित जीवन के रक्षण-पोषण और संवर्धन के लिए जल की एक-एक बूँद सहेज कर रखें। जल ही जीवन है ! जल के बिना जीवन की परिकल्पना सम्भव नहीं है। भारतीय दर्शन में नीर आदि पुरुष “नारायण” और उनकी सहचरी “नीरजा” के उद्भव स्त्रोत के रूप में प्रतिष्ठित है। जल स्त्रोतों के रक्षण एवं संवर्धन से ही देव तत्व एवं जीवन तत्त्व की सम्यक रूप से रक्षा की जा सकती है ..! जल सभी जीव-जन्तुओं की जीवन रेखा है। जल ही है हमारी भू सम्पदा, जल ही बचाता जीवन सर्वदा। पानी सभी के जीवन की बुनियादी आवश्यकता है, लेकिन अभी धरती पर केवल 0.75 प्रतिशत पानी ही पीने योग्य है। इसलिए जल का संरक्षण करना बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। पूज्य “आचार्यश्री” जी अनेक सेवा और कल्याण कार्यों से जुड़े हैं, उसमें जल को लेकर चिंता सर्वोपरि है। उनके ही शब्दों में, ‘हम लोगों ने वर्ष 2004 में पहली बार उज्जैन कुम्भ में जल पर एक चर्चा की। हालांकि इसके लिए जो शब्द दिया गया, मैं उसके पक्ष में नहीं था, लेकिन जल के कुछ बड़े पर्यावरणविदों ने कार्यक्रम का नाम दिया ‘जल संसद’। पूरे देश से लगभग 250 जल वैज्ञानिकों ने इस कार्यक्रम में भाग लिया। फिर वर्ष 2005 में हमने इंदौर में भी जल को लेकर चर्चा की। वर्ष 2007 में प्रयाग के कुंभ में ‘जल संसद’ हुई, 2010 में हरिद्वार के कुंभ में, 2013 में फिर से प्रयाग के कुंभ में और 2016 में पुनः उज्जैन कुम्भ में ‘जल संसद’ आयोजित की गई। और, हाल ही के दिनों में फिर से प्रयागराज कुम्भ 2019 में जल संवर्धन पर चर्चाएं की गई। आईआईटी से लेकर कई बड़े संस्थानों के वैज्ञानिकों ने शोध पत्र पढ़े, अपने अनुभवों को साझा किया। इन सबसे जो बात निकलकर आई, वह यह थी कि धरती पर 1 फीसदी से भी कम पीने योग्य जल बचा है। इसीलिए तत्काल नदियों को बचाना, जलस्तर को बढ़ाने के लिए पेड़ लगाना बहुत ही आवश्यक है। पहली आवश्यकता यह है कि नदियों की अविरलता, निर्मलता को सहेज कर रखा जाए …।’
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – हमारा पर्यावरण को लेकर प्रकल्प बहुत पुराना है। हमने गांव-गांव, हर शहर और अनगिनत स्थानों पर लोगों को वृक्षारोपण के लिए प्रेरित किया है। हमने कहा कि तुलसी घर-घर पहुंचनी चाहिए, पेड़ों में भी नीम, पीपल, कदंब, पाकड़ आदि लगने चाहिए, क्योंकि ऐसे पेड़ों में नित्य प्राण वायु है।’ पर्यावरण को लेकर “आचार्यश्री” जी समझाते हुए कहते हैं, ‘पर्यावरण का अर्थ है, जिससे जैव संतुलन बना रहे। जैव जगत में जो कुछ भी है, धरती, अंबर, जल, अग्नि, वायु, नक्षत्र, विविध प्राणी इन सबका संबंध पर्यावरण से है। आज ग्लोबल वार्मिंग, उच्च तापमान के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं। जिस तरह से हरीतिमा का हनन हुआ है, न केवल वन, अपितु वन्य संपदा भी जिस तरह से छीन ली गई है। जिस ढंग से सलिलाओं का सातत्य, नदियों का प्रवाह बाधित हुआ है, उनकी अविरलता, निर्मलता, शुचिता, सातत्य, स्वभाव, सबका हनन हुआ है। उसे देखकर कहा जा सकता है कि जीवन अब उतना सुगम और सहज नहीं रहा। अंबर और अंतरिक्ष में अब असहजता है। धरती पर तो पर्यावरण के असंतुलन को सीधे देखा जा सकता है।’ जीवन और प्रकृति के बीच विसंगति न बढ़े। वे कहते हैं, ‘पर्यावरण के लिए, हमने बहुत पहले वृक्ष को चुना। अगर धरती पर वृक्ष है तो प्राण है, आर्द्रता है, जलवायु है, औषधि है, उसके पल्लव-पात, छत्रछाया, हरीतिमा, गंध-सुगंध, मकरंद, प्राण-वायु सब हमारे जीवन के लिए हैं। उससे पैदा होने वाली आर्द्रता बादलों को आमंत्रित करती है। उसकी जड़ें भूस्खलन को रोकती हैं, अथवा जल का संतुलन बनाती हैं …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – समाज में प्रच्छन्न उपभोगवाद है। स्वार्थ चरम पर है, अपने हितों की रक्षा के लिए लोगों का जीवन समर्पित हो गया है। हमें कुछ और दिखता ही नहीं। जब आपको सिर्फ अपना घर दिखे और मोहल्ले की गली न दिखे। आप गली में कूड़ा फेंक दें, आप सड़क पर लगे हुए बल्ब को निकालकर ले जाएं, नए बने हुए पुल के लोहे को निकालकर ले जाएं तो सोचिए समाज किधर जा रहा है? हमें आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है। अभी हम जिस दिशा में जा रहे हैं, वह राह मानव जाति की समाप्ति की ओर ले जाती है। हम इस धरती की हत्या की और बढ़ रहे हैं, हमारी जो प्रवृतियां हैं, वे सब आत्मघाती हैं। हमें कुछ दिख ही नहीं रहा है, न हम इस धरा के लिए सोचते हैं, न इस जलवायु के लिए। यहां तक कि हम अपने स्वास्थ्य के लिए भी चिंतित नहीं हैं। हम इतनी गहरी तंद्रा में हैं कि तत्काल कुछ पदार्थों के आकर्षण में उलझे हुए हैं। ऐसे में अध्यात्म को जीवंत बनाएं। अध्यात्म-ज्ञान ही दुनिया में शांति ला सकता है।आध्यात्मिकता के साथ सामाजिक जिम्मेदारियों को जोड़ने में संत-समाज सफल रहा हैं? हमने अपने कार्यों से जीवन में कुछ अच्छे परिणाम देखे हैं। लोग व्यसन मुक्त हुए हैं, प्रकृति प्रेमी बने हैं, लोगों ने विकारों से स्वयं को अलग रखा है, कुरीतियों से दूर हो रहे हैं, अर्थ का अपव्यय नहीं कर रहे हैं, परिवारों में एकता आई हैं, लोगों के अंदर देशप्रेम की भावना जगी है, परमार्थिक भाव भी जगे हैं। जब आप कुछ अच्छा संकल्प लेकर निकलते हैं, तो लोग प्रेरित होते हैं। इस तरह एक परिवर्तन भी आता है। यह सच है कि एक तरफ बढ़ता उपभोगवाद है, तो वहीं दूसरी तरफ लोगों में अध्यात्म के लिए भी उत्सुकता है। जहां पदार्थों का आकर्षण और प्रलोभन लोगों के चित्त को झकझोर रहा है, वहीं दूसरी और कहीं आत्मा का सत्य भी उसे पुकार रहा है, वह अपने अस्तित्व को भी जानना चाहता है। इसके परिणाम देखिए कि योग के लिए एक विश्वव्यापी स्वीकृति बनी है। योग के कारण एक बहुत ही सुखद भविष्य देख रहा हूं। अभी व्यक्ति योग से अपने शरीर को ठीक कर रहा है। एक दिन आएगा जब व्यक्ति योग से अपने मन को ठीक करेगा, मन की व्याधियों को ठीक करेगा। यह सुखद है कि भारत ने दुनिया को योग से प्रेरित किया है। जिस दिन भी योग देह से मन तक उतरेगा पूरा विश्व एक हो जाएगा। अतः मैं इस विश्व को एक गांव, एक परिवार के रूप में देखना चाहता हूं …।
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