पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – धरा भगवद् भार्या है। शुद्ध वायु-जल, प्रकाश रश्मि एवं अन्यान्य अवयवों के संतुलन से ही धरा में विद्यमान जीवन तत्व की रक्षा की जा सकती है। प्रत्येक जीव की माँ स्वरूपा वसुंधरा को स्वच्छ-सन्तुलित और प्रदूषण मुक्त रखना हमारा परम कर्तव्य है ..! हमारी वैदिक ऋचाओं में मंत्रद्रष्टा ऋषियों ने पर्यावरण संतुलन एवं लोकमंगल के अनेक समवेत स्वर दिये हैं। प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति हमारी उपभोग की नहीं, अपितु उपयोग की वृति हो। विश्व पृथ्वी दिवस समष्टि के लिये मंगलमय हो ! धरा सन्तुलन ही ऐश्वर्य, भुक्ति-मुक्ति प्रदाता है। अतः धरती के रक्षण हित में हम प्राकृतिक जीवन अभ्यासी बनें। भारतीय परम्पराओं का धरती के संरक्षण से पुराना सम्बंध है। प्राचीन काल से ही भारत में प्रकृति के साथ संतुलन करके चलने का महत्वपूर्ण संस्कार है। यदि ये परंपराएं न होतीं तो भारत की स्थिति भी गहरे संकट के किनारे खड़े किसी पश्चिमी देश की तरह होती।
भौतिक विकास के पीछे दौड़ रही दुनिया ने आज जरा ठहरकर सांस ली तो उसे अहसास हुआ कि चमक-धमक के फेर में क्या कीमत चुकाई जा रही है। आज ऐसा कोई देश नहीं है जो धरती के संरक्षण पर मंथन नहीं कर रहा हो। भारत भी चिंतित है; लेकिन, जहां दूसरे देश भौतिक चकाचौंध के लिए अपना सबकुछ लुटा चुके हैं, वहीं भारत के पास आज भी बहुत कुछ है। पश्चिम के देशों ने प्रकृति को हद से ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। पेड़ काटकर कांक्रीट खड़े करते समय उन्हें अंदाजा नहीं था कि इसके क्या गंभीर परिणाम होंगे? प्रकृति को नुकसान पहुंचाने से रोकने के लिए पश्चिम में मजबूत परंपराएं भी नहीं थीं। धरती के संरक्षण का कोई संस्कार अखण्ड भारतभूमि को छोड़कर अन्यत्र देखने में नहीं आता है। जबकि सनातन परम्पराओं में प्रकृति संरक्षण के सूत्र उपलब्ध हैं। हिन्दू धर्म में प्रकृति पूजन को प्रकृति संरक्षण के रूप में मान्यता है।
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भारत में पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं। पेड़ की तुलना संतान से की गई है तो नदी को मां स्वरूप माना गया है। ग्रह-नक्षत्र, पहाड़ और वायु देवरूप माने गए हैं। हिन्दुत्व जीवन वैज्ञानिक जीवन पद्धति है। प्रत्येक हिन्दू परम्परा के पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक रहस्य अवश्य छिपा हुआ है। इन रहस्यों को प्रकट करने का कार्य होना चाहिए। हिन्दू धर्म के संबंध में एक बात सम्पूर्ण विश्व मानती है कि हिन्दू दर्शन ‘जीयो और जीने दो’ के सिद्धांत पर आधारित है, जबकि यह विशेषता किसी अन्य धर्म में नहीं है। हिन्दू धर्म का सह-अस्तित्व का सिद्धांत ही हिन्दुओं को प्रकृति के प्रति अधिक संवेदनशील बनाता है। हमारे ऋषि-मुनि जानते थे कि पृथ्वी का आधार जल और जंगल है। इसलिए उन्होंने पृथ्वी की रक्षा के लिए वृक्ष और जल को महत्वपूर्ण मानते हुए कहा है – ‘वृक्षाद् वर्षति पर्जन्य: पर्जन्यादन्न सम्भव: …’ अर्थात्, वृक्ष जल है, जल अन्न है और अन्न जीवन है। जंगल को हमारे ऋषि-मुनि आनंददायक कहते हैं – ‘अरण्यं ते पृथिवी स्योनमस्तु …’ यही कारण है कि हिन्दू जीवन के चार महत्वपूर्ण आश्रमों में से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास का सीधा संबंध वन और जंगलों से ही है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – वैदिक चिंतन से ही होगा धरती का संरक्षण। भारत के ऋषि-मुनियों द्वारा विरचित वेदों, पुराणों, उपनिषदों तथा अनेक धार्मिक ग्रंथों में धरती माँ का चित्रण हमें प्राप्त होता है।भारतीयता का अर्थ ही है – “हरी-भरी वसुंधरा और उसमें लहलहाते फूल, गरजते बादल, नाचते मोर और कल-कल बहती नदियां …”। यहां तक कि भारतीय संस्कृति में वृक्षों और लताओं को देव-तुल्य माना गया है। जहां अनादिकाल से इस प्रार्थना की गूंज होती रही है – ‘हे पृथ्वी माता तुम्हारे वन हमें आनंद और उत्साह से भर दें …’। पेड़-पौधों को सजीव और जीवंत मानने का प्रमाण भारतीय वाङ्मय में विद्यमान है। ऋग्वेद में यही बताया गया है कि शुद्ध वायु कितनी अमूल्य है तथा जीवित प्राणी के रोगों के लिए औषधि का काम करती है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आयुवर्धक वायु मिलना आवश्यक है। और, वायु हमारा पालक पिता है, भरणकर्ता भाई है, वह हमारा सखा व जीवनदाता है। वृक्षों से ही हमें खाद्य-सामग्री प्राप्त होती है, जैसे – फल, सब्जियां, अन्न तथा औषधियां भी।
अथर्ववेद में कहा है – ‘भोजन और स्वास्थ्य देने वाली सभी वनस्पतियां इस भूमि पर ही उत्पन्न होती हैं। पृथ्वी सभी वनस्पतियों की माता और मेघ पिता हैं, क्योंकि वर्षा के रूप में पानी बहाकर यह पृथ्वी में गर्भाधान करता है। वेदों में इसी तरह पर्यावरण का स्वरूप तथा स्थिति बताई गई है और यह भी बताया गया है कि प्रकृति और पुरुष का संबंध एक-दूसरे पर आधारित होता है। पर्यावरण पृथ्वी पर जीवन के पोषण के लिए प्रकृति द्वारा दी गयी अमूल्य भेंट है। पर्यावरण संरक्षण आज जीवमात्र के कल्याण के साथ-साथ प्रकृति सुरक्षा के लिए भी अति आवश्यक हो गया है। पर्यावरण परिवेश को इस स्थिति तक पहुँचाने वाला मनुष्य है और उसे वापस पूर्व-स्थिति में लाने की क्षमता और विवेक भी उसी में ही है। अत: आज के इस युग में धरती के संरक्षण की शिक्षा अति-आवश्यक और महत्वपूर्ण हो गयी है। बिना पर्यावरण शिक्षा के धरती के संरक्षण की कल्पना भी नही की जा सकती। यदि समय के रहते इस शिक्षा की और जनमानस का ध्यान आकर्षित नहीं किया गया तो प्रलय की स्थिति का आगमन अवश्यंभावी हो जाएगा। तो आइये ! आज हम प्रण लें कि अपनी धरती और पर्यावरण की हम रक्षा करेंगें और आने वाली पीढ़ियों के लिए हरी-भरी और खुशहाल धरती हमारी और से एक बहुमूल्य उपहार होगी …।
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