विवेक के आश्रय में जीने वालों को जीवन में कोई कठिनाई नहीं आती : स्वामी अवधेशानन्दं जी महाराज

पूज्य सद्गुरुदेव आशीषवचनम्
          ।। श्री: कृपा ।।
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 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – भगवान भक्त-वत्सल, परम-कृपालु और सर्वत्र नित्य-विद्यमान सत्ता हैं। विशुद्ध अन्तःकरण-आर्द्र भाव से की गई प्रार्थना से वो शीघ्र ही द्रवीभूत हो जाते हैं। प्रभु नृसिंह आसुरी-वृत्तियों का नाश कर प्रह्लाद की भांति दिव्य आह्लादकारी वृत्तियों का सृजन करें। अध्यात्म की राह पर आगे बढ़ने की प्रेरणा दे रहा है यह संक्रमण काल। अध्यात्म का अर्थ है – अपने वास्तविक स्वरूप में लौटना। अध्यात्म स्वभाव की यात्रा है। मनुष्य सत्ता में विद्यमान सनातन महासत्ता सर्वत्र चित-घन, पूर्ण-परमानंद स्वरूप है। यह विश्वरूपा प्रकृति उसका ही एक धर्म परिणाम है, सनातन का धर्म परिणाम सनातन होता है। परम सब प्रकार से पूर्ण है, अतः उसमें कुछ भी अपूर्णता नहीं। इस सत्य का अनावरण है – अध्यात्म। स्वस्थ समाज के लिए आत्म-जागरण आवश्यक है। व्यक्ति को संस्कारित करना ही अध्यात्म का काम है। अध्यात्म की पवित्र ज्योति में जीवन संबंधी सम्पूर्ण समस्याओं के संदर्भ नए-नए अर्थों, अपरिभाषित व्याख्याओं और सरल परिभाषाओं के रूप में प्रकट होते हैं। इसी से मनुष्य स्वयं को ढंग से समझ पाता है। उसे पता चलता है कि प्राकृतिक जीवन का अंतिम लक्ष्य आधुनिकता की अनेक छिद्रयुक्त नावों पर बैठ यात्रा कर दुर्घटनाग्रस्त होने के लिए नहीं, अपितु सहज-सरल प्राकृतिक जीवन जीने के लिए है …।
🌿 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनुष्य को बाहरी वस्तुओं में ज्यादा आनंद मिलता है, पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो इन सबसे ऊपर उठकर सूक्ष्मतर तत्वों की प्राप्ति के लिए सतत् प्रयत्नशील रहते हैं। कुछ लोगों को भोजन में आनंद मिलता है, किसी को सुंदर वस्त्रों में आनंद मिलता है तो कुछ संपत्ति के स्वामित्व में सुख का अनुभव करते हैं। इन सबसे हटकर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिन्हें आध्यात्मिक चिंतन में ही परम आनंद की अनुभूति होती हैं। मनुष्य आध्यात्मिकता के सागर में जितना गहरा उतरेगा, उसे उतने ही सुख के सीप प्राप्त होंगे। मनुष्य भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहता है। इसके लिए वह नैतिक-अनैतिक की भी परवाह नहीं करता। उसका एक ही लक्ष्य होता है, अधिक से अधिक भौतिक सुखों को प्राप्त करना। इसके विपरीत आध्यात्मिक आनंद, जो कि जीवन का असल आनंद है, की प्राप्ति के प्रति वह इतना गंभीर नहीं होता। वह स्थायी सुख से क्षणिक सुख को ज्यादा महत्व देता है। भौतिक सुख की प्राप्ति के लिए हम बाहर की ओर भागते हैं और आध्यात्मिक सुख के लिए अंदर की ओर। अध्यात्म की नौका पर सवार होकर ही मनुष्य संसार सागर से सफलतापूर्वक पार उतर सकता है। इस पृथ्वी पर करोड़ों प्रकार के जीव हैं, किंतु ईश्वर ने सिर्फ मनुष्य को ही आध्यात्मिक आनंद का सुख प्रदान किया है। इसलिए मनुष्य को आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होकर अपने इस जीवन को सफल बनाने का प्रयत्न करना चाहिए …।
🌿 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – जब हमारे मन की तरंगें तूफानी रूप ले लेती हैं, तब अध्यात्म ही इसे शांत शील में परिवर्तित कर सकता है। अध्यात्म ही सांसारिकता के बंधनों में जकड़े मनुष्य को ईश्वर की समीपता का आभास कराता है। भौतिकता से हम क्षणिक बाहरी आनंद तो आसानी से प्राप्त कर सकते हैं, पर यह स्थायी नहीं होता। अध्यात्म मनुष्य को स्थायी आंतरिक आनंद प्रदान करता है। हमारा आवश्यकता से अधिक सांसारिक होना आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति में एक बड़ा अवरोध है। सांसारिकता में घिरे रहने से हमारे इहलोक और परलोक दोनों बिगड़ सकते हैं। सांसारिकता मनुष्य को पूर्णतः भौतिकवादी बना देती है। हालाँकि ऐसी आशंकाएँ भी व्यक्त की जाती हैं कि आध्यात्मिकता पर ज्यादा जोर देने से सांसारिक व्यवहारों में परेशानियाँ उत्पन्न हो सकती हैं, पर जो विवेक के आश्रय में जीवन जीता है ऐसे बुद्धिमान व्यक्ति को इसमें कोई कठिनाई नहीं आती। आध्यात्मिक होने का अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ ले। उसे अपने कर्तव्यों का पालन और जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। इसलिए हम कितना भी ज्ञान प्राप्त कर लें, पर जब तक हमें उन नियमों का ज्ञान नहीं है, जो मनुष्य के मनोवेग, भावनाओं और इच्छाओं पर नियंत्रण करते हैं, तब तक हमारा ज्ञान अधूरा ही है …। 

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