पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – सकारात्मक विचारों में अतुल्य-ऊर्जा, शुभता और अनन्त-सामर्थ्य समाहित है। जिस प्रकार सूर्य के उदय होते ही अंधकार का निर्मूलन हो जाता है, उसी प्रकार सकारात्मक विचारों से हमारे जीवन की हताशा, नैराश्य दैन्य और पलायन का स्वतः अवसान हो जाता है ..! यह निराकार परमात्मा घट-घट में समाया हुआ है। इसका कोई आदि अंत नहीं है। सृष्टि के सकल जीव-जन्तु, दृश्य-अदृश्य और लौकिक-अलौकिक जगत उस परम तत्त्व का ही विस्तार है। स्वयं ही सब में और अनन्त स्वयं में समाहित है। परमपिता परमेश्वर सर्वत्र व्याप्त हैं। यह विशाल संसार, अंतरिक्ष, कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड, इन सब के कण-कण में ईश्वर की असीम सत्ता विद्यमान है। वही इन सब का नियन्ता है, नियामक है। “ईशावास्यम इदम सर्वं यत्किंच जगत्याम् जगत …” अर्थात्, हर वस्तु में, चेतन में, हर रोम-रोम में ईश्वर का वास है। वह निराकार परमेश्वर दिखाई नहीं देता, लेकिन सब ओर व्याप्त है। वह फूल बनकर खिलता है, झरना बनकर बहता है। कभी पंछी बनकर नीले आकाश में विहार करता है। वही हमारी प्राण शक्ति है। सोते-जागते हर समय वह हमारे साथ है। हमारे भीतर भी, बाहर भी और चारो और भी। जैसे दूध की प्रत्येक बूँद में घी का अंश छिपा होता है, उसी प्रकार ईश्वर भी सर्वव्यापक है। संसार के कोने-कोने में, सभी जीव जंतुओं में, पशु-पक्षिओं में, सभी प्राणियों के रोम-रोम में, उस परमेश्वर की सत्ता विद्यमान है। ईश्वर सर्वत्र है। सारे जगत में ईश्वर का ही शासन है। प्रकृति परमात्मा की अदभुत और अनुपम रचना है। नदी, पर्वत, वन और उपवन सहित कण-कण में वही एक समाया हुआ है। अतः ब्रह्माण्ड में व्याप्त ईश्वर की परिकल्पना का कोई छोर नही है …।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनुष्य का सामूहिक चेतन मन किसी प्रत्यक्ष सदगुरु की दिव्य उपस्थिति में जागृत होता है, जो मन की गहरी परतों को भेद कर अनंत के रहस्यों का अनुभव करने में सक्षम बनता है। मनुष्य के इस जीवन की सफलता ही तब है जब मन की इन परतों में यात्रा करते हुए हम परम-मन यानि अपने ईश्वरत्व का अनुभव कर लें। इसी यात्रा को करने के लिए प्रत्यक्ष सदगुरु की नितांत आवश्यकता व अनिवार्यता है। अदृश्य के अनंत रहस्य श्रीगुरुदेव की प्रत्यक्षता और समागम में मनुष्य के मन में उजागर होने लगते हैं। श्रीगुरुदेव में जो अस्तित्व प्रकट हुआ है वही अस्तित्व शिष्य समुदाय में सुषुप्त रूप से पड़ा है। इसी सुषुप्त चेतना को श्रीगुरुदेव का दिव्य समागम जागृत करता है और मनुष्य अनंत की महायात्रा पर, देह में रह कर देहातीत अवस्था के अनुभव पर सहज ही निकल पड़ता है। अतः भगवान का स्मरण करते रहें तथा यह मत भूलें कि संसार नश्वर है और नित्य परिवर्तनशील है। इसलिए एकमात्र भगवान ही हमारे सच्चे सुहृद हैं, अत: सर्वभाव से उन्हीं की शरण ग्रहण करना हमारा परम कर्तव्य है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – निरंतर साधना करने से पाप-दोषों का शमन हो जाता है जिसके कारण व्यक्ति का मन चैतन्य और शुद्ध हो जाता है, फलस्वरूप चेहरे पर एक तेजस्विता का भाव आ जाता है। उसकी वाणी में ओज, दृढ़ता एवं स्पष्टता आकर जीवन सभी तरह से सफलता की ओर अग्रसर होने लगता है। व्यक्ति के जीवन को महान बनाने के लिए गुरु-तत्व का होना आवश्यक है, बिना इसके व्यक्ति के जीवन में पुरुष से पुरुषोत्तम बनने की क्रिया प्रारंभ नहीं हो पाती। जब व्यक्ति साधना करते हुए इष्ट से एकाकार होता हुआ साधना संपूर्ण करता है, तब तत्क्षण साधक के चेहरे पर तेजस्विता और प्रेम की भावना में वृद्धि होती है।
किसी भी कार्य की पूर्णता गुरु के आशीर्वाद के बिना संभव नहीं है। सद्गुरु की कृपा से शिष्य के सभी कार्य सहज रुप से पूर्णता प्राप्त करने लगते हैं। भक्ति मुक्ति की सीढ़ी है, भक्ति हृदय में उत्पन्न हो तो ईश्वर की सत्ता, प्रेम और माधुर्य स्वतः प्रकटते हैं। ईश्वर के लिए यदि भाव दृढ़ हो तो वह उससे अनभिज्ञ नहीं रह सकता। उसके सारे कार्य वही तो संवारता है, सुमिरन का भाव अंतर को पवित्र करता है; अन्यथा मन इतना वेगवान है कि कोई आश्रय न मिले तो व्यर्थ इधर-उधर भटकता फिरेगा। चित्त की झील यदि शांत होगी तो ही परमात्मा का प्रतिबिम्ब उसमें झलकेगा। एक सामान्य सा दिखने वाला जीवन भी अपने भीतर इस सम्पूर्ण सृष्टि का इतिहास छिपाए रहता है, “यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे…” के अनुसार हर जीवन उस ईश्वर को ही प्रतिबिम्बित कर रहा है, सतत् जागरूक रहकर ही परम को अनुभव किया जा सकता है। शास्त्र कहते हैं कि वह निकट से भी निकट है और दूर से दूर भी है। अतः देखा जाये तो हर दिन मानव का एक नया जन्म होता है, हर रात मृत्यु होती है, एक दिन एक रात ऐसी भी आएगी, जिसकी सुबह परिचित माहौल में नहीं होगी, उस वक्त ज्ञान और ईश्वर ही हमारे साथ होंगे। अतः साधना में हरपल निरत रहें एवं सतत् इष्ट मंत्र, गुरू मंत्र का जप करते रहें …।
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