पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य सद्गुरुदेव जी ने कहा – “वसुधैव कुटुम्बकम्” के दिव्य भाव की उद्घोषक भारतीय संस्कृति प्रत्येक संदर्भ में नित्य नूतन और समीचीन है। आज विश्व के समक्ष उपस्थित अति लोभ, भोग, संचयन् एवं भंडारण की वृत्ति, हिंसा, जल-पर्यावरण संकट आदि अनेक समस्याओं के समाधान के सूत्र आध्यात्मिक गलियारें में ही निहित हैं ..! हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति समूचे विश्व की संस्कृतियों में सर्वश्रेष्ठ और समृद्ध संस्कृति है। भारत विश्व की सबसे पुरानी सभ्यता का देश है। भारतीय संस्कृति के महत्वपूर्ण तत्व शिष्टाचार, तहज़ीब, सभ्य संवाद, धार्मिक संस्कार, मान्यताएँ और मूल्य आदि हैं। अब जबकि हर एक की जीवनशैली आधुनिक हो रही है, भारतीय लोग आज भी अपनी परंपरा और मूल्यों को बनाए हुए हैं।
विभिन्न संस्कृति और परंपरा के लोगों के बीच की घनिष्ठता ने एक अनोखा देश ‘भारत’ बनाया है। हर भारतीय का ये कर्तव्य है कि वो अपनी भारतीय संस्कृति और उसके वैदिक ज्ञान का अंतरात्मा से अनुकरण करे जिससे कि इस संस्कृति का और प्रचार-प्रसार हो, ये बढ़ती रहे तथा तेजस्वी रूप धारण करे। यह संस्कृति ज्ञानमय है और युतियुक्त कर्म करने की प्रेरणा देने वाली संस्कृति है। ये वो संस्कृति है जो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की अनुकरणीय और लीलापुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की अनुसरणीय शिक्षाओं की साक्षी है। भारतीय संस्कृति का अर्थ है – सर्वांगीण विकास, सबका विकास। भारतीय संस्कृति की आत्मा छुआछूत को नही मानती और ना ही किसी भेद को जानती है। अतः यह प्रेमपूर्वक और विश्वास पूर्वक सबका आलिंगन करके, ज्ञानमय और भक्तिमय कर्म का अखण्ड आधार लेकर माँगल्य-सागर की ओर तथा सच्चे मोक्ष-सिन्धु की ओर ले जाने वाली संस्कृति है …।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – भगवान ने इस इच्छा से हम मनुष्यों का निर्माण किया है कि हम सब उसकी इस सृष्टि को अधिक सुन्दर, अधिक सुखी, अधिक समृद्ध और अधिक समुचित बनाने में उसका हाथ बंटायें। अपनी बुद्धि, क्षमता और विशेषता से अन्य पिछड़े हुये जीवों की सुविधा का सृजन करें और परस्पर इस तरह का सद्व्यवहार बरतें जिससे इस संसार में सर्वत्र नैसर्गिक वातावरण दृष्टिगोचर होने लगे। ये वो संस्कृति है जो अधिकार से ज्यादा कर्तव्य पालन पर बल देती है। भारत देश और यहाँ की संस्कृति अनेक धर्मो को और उनकी शिक्षाओं को न केवल अपने में संजोय हुए है, अपितु इस देश ने या संस्कृति ने किसी भी धर्म को श्रेष्ठ या निम्न नही आंका। भारतीय संस्कृति यथार्थ के बहुआयामी पक्ष को स्वीकार करती है तथा दृष्टिकोणों, व्यवहारों, प्रथाओं एवं संस्थाओं की विविधता का स्वागत करती है। यह एकरूपता के विस्तार के लिए विविधता के दमन की कोशिश नहीं करती।
भारतीय संस्कृति का आदर्श-वाक्य “अनेकता में एकता एवं एकता में अनेकता” दोनों है। भारत एवं भारतीय संस्कृति “वसुधैव कुटुम्बकम” का भाव रखने वाली संस्कृति है। भारतीय संस्कृति ने न केवल भारत को, अपितु समूची धरा को सदैव एक कुटुंब (परिवार) माना है, जबकि अन्य देशों ने भारत को केवल बाज़ार मान है। लेकिन, ये संस्कृति और इस संस्कृति में रचे बसे लोग इतने उदार हैं कि हमने सदैव अन्य देशों की संस्कृतियों का दोनों बाहें फैलाकर स्वागत किया है। भारतीय संस्कृति के उपासकों की महान यात्रा अनादि काल से आरम्भ हुई है। इस संस्कृति में महर्षि व्यास, वाल्मीकि, बुद्ध, महावीर स्वामी, आदिगुरु शंकराचार्य, रामानुज, संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, गुरु नानकदेव, संत कबीर एवं महर्षि अरविन्दो जैसी महान विभूतियां हुईं जिन्होंने इस संस्कृति को आगे बढ़ाया और समृद्ध बनाया। तो आइए ! हम सब अपने आपसी मतभेदों को भूलाकर इस पावन यात्रा में सम्मिलित हों। आज भारतीय संस्कृति के ये सारे सत्पुत्र हम सबको पुकार रहे हैं। और, यह पुकार जिसके हृदय तक पहुँचेगी एवं जो अपने राष्ट्र और उसकी संस्कृति की सेवा के लिए सजग हो जायेगा, उसी का जीवन धन्य होगा …।
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