न्यूज़ डेस्क : पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – जैसे ही अन्त:करण में ब्रह्म जिज्ञासा की तीव्रता जागृत होती है संपूर्ण सृष्टि में माधुर्य-सौंदर्य, एकत्व, परिपूर्णता आदि दिव्य-अनुभव स्थिर होने लगते हैं ! ईश्वर का विचार शान्ति, आनन्द एवं सरसता प्रदाता है ..! संसार के सारे कार्य करते हुए स्वयं को जानना अत्यंत आवश्यक है। “अथातो ब्रह्म जिज्ञासा …” बादरायण का “ब्रह्मसूत्र” इस अत्यंत सुंदर और अर्थगर्भी वाक्य से प्रारंभ होता है। “आओ, अब हम परम सत्य की जिज्ञासा करें।
” यह एक आवाहन है, प्रस्थान है, दिशा है और गति भी। धर्म का अर्थ है – आस्था। और, दर्शन का अर्थ है – जिज्ञासा। विवेकवान को ही शास्त्र ’जागा हुआ’ कहते हैं। “जागर्ति को वा …? अर्थात्, जागा हुआ कौन है? इसका उत्तर देते हुए आद्यशंकर कहते हैं – ’सदसद् विवेकी …’, यानी, जो सत्य-असत्य का विवेक कर सकता है, वही जागा हुआ है। नहीं तो – ’मोह निशा सब सोवन हारा …’। अनन्त संभावनाओं से समाहित मनुष्य जीवन की नियति है – ब्रह्म। अथातो ब्रह्म जिज्ञासा …, स्वयं में परम सत्ता को अनुभूत करने की दिव्य सामर्थ्य जागरण में सहायक है – सत्संग। अतः सत्संग ही सर्वथा श्रेयस्कर-हितकर है ! शास्त्रों में सत्संग की महिमा का बारंबार बखान किया गया है। व्यवहार की दृष्टि से संग जहां संस्कारों का वाहक है, वही चित्त में प्रसुप्त पड़े संस्कारों को क्रियाशील भी बनाता है।
अजामिल की कथा बताती है कि कैसे संग का प्रभाव पूरे व्यक्तित्व को बदलकर रख देता है। एक साधु पुरुष कैसे अनर्थकारी हो जाता है। संग से जीवन की दिशा ही बदल जाती है। अतः मनुष्य अपनी छिपी शक्तियों को पहचाने बिना शक्तिशाली नहीं बन सकता। मानव-देह में एक चिरन्तन आध्यात्मिक सत्य छिपा हुआ है; जब तक वह मिल नहीं जाता, इच्छायें उसे इधर से उधर भटकाती, दुःख के थपेड़े खिलाती रहती हैं। जब तक सत्यामृत की प्राप्ति नहीं होती, तब तक मनुष्य बार-बार जन्मता और मरता रहता है। न कोई इच्छा तृप्त होती है और न ही आत्मसन्तोष होता है। ईश्वर हम सब को प्राप्त है; बस आवश्यकता है तो ईश्वर को पहचानने के लिए योग्य सद्गुरु की …।
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जिसकी ब्रह्म-दर्शन की जिज्ञासा जितनी प्रबल होती है, वह उतनी ही शीघ्रता से नारायण का दर्शन करता है। सत्संग रूपी दर्पण से ही होती है – स्वयं की पहचान। सत्संग स्वयं को पहचानने का एक दर्पण है। परमात्मा जानने का नहीं, मानने का विषय है। मानने में श्रद्धा चाहिए और जानने में बुद्धि। बुद्धि तर्क करती है, जबकि श्रद्धायुक्त जीवन प्रेमपूर्ण होता है। यही धर्म का प्रयोजन भी है। मनुष्य को परमात्मा को पाने की योग्यता अर्जित करना चाहिए। सत्संग स्वयं को जानने, शंकाओं का समाधान पाने और जीवन को मंगलमय करने का साधन है। जगत में रहकर सारे संसार को जान लिया, लेकिन स्वयं को नहीं जाना तो जानना व्यर्थ है। जो स्वयं को जान लेता है, उसका जीवन सफल और सार्थक मानना चाहिए। जगत में वैसे तो असंख्य प्राणी जीते हैं, लेकिन जीना उन्हीं का सार्थक है, जो परमात्मा का होकर, परमात्मा को जानकर और परमात्मा को मानकर, परमात्मा के लिए जीते हैं …।
सत्संग आंतरिक दृढ़ता और आत्मविश्वास से जुड़ा हुआ भाव है। जब हम सत्संग में होते हैं तब हम चैतन्य होते हैं, हमारा विवेक और अंत:करण के सभी द्वार खुलने लगते हैं और हम जीवन की भौतिक लालसाओं से सहज मुक्त होकर ईश्वरीय आलोक में निवास करते हैं। सत्संग हमें सत्य का साक्षात्कार करवाता है। सत्य वैसी ही सूक्ष्म भाव है – जैसा कि ईश्वर। ईश्वर का अनुभव आंतरिक प्रकाश में किया जा सकता है, वैसे ही सत्य का साक्षात्कार बाह्य से पूर्णतया कटकर, अपने भीतरी आलोक में लौटने पर ही संभव हो सकता है। इसलिए जो लोग आत्मदर्शन के लिए ध्यान की क्रियाओं का अभ्यास करते हैं, उनके लिए सत्संग एक महत्वपूर्ण सोपान है।
सत्संग के समय मन निश्छल होता है तथा स्वयं को जानने का मार्ग सुगम हो जाता है। सत्संग ऐसे लोगों के साथ उठने-बैठने या उनकी कथा सुनने से है, जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया है। “जिन खोजा तिन पइयां, गहरे पानी पैठ। मैं बौरी डूबन डरी, रही किनारे बैठ …”॥ अर्थात्, असल वस्तु ब्रह्म दर्शन पाना है तो गहरी डुबकी तो लगानी ही होगी। गुरु ने आपको समुद्र के किनारे तो लाकर खड़ा कर दिया है, जो अनमोल मोतियों से भरा है। मात्र ऊपर-ऊपर ही तैरते रहने से मोती नहीं मिलेंगे, उसके लिए तो आपको गहरी डुबकी लगानी ही पड़ेगी। हां, यह बात अलग है कि कभी समुद्र की दया हो जाए और मोती किनारे पर आ जाए; अर्थात्, सद्गुरु की अहैतुकी कृपा हो जाए तो मोती आपके हाथ में आ जाएं ..!
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