पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – यह संसार सर्वशक्तिमान परमात्मा का ही विस्तार है और वह परमसत्ता ही इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय का कारण है। इसलिए आध्यात्मिक अंतःकरण सम्पन्न साधक इस सत्य को अनुभूत कर अहमन्यता-कर्तापन आदि भावों से सर्वथा मुक्त रहकर भगवदीय भाव-साम्राज्य की अभिन्नता के आनन्द में रहते हैं …! ईश्वर-भक्ति, भगवन्नाम-जप और स्मरण इस बदलते हुए भौतिक संसार में दिव्य आनंद का अनुभव करने का उपाय है। उपासना अंतःकरण की परिशुद्धि और आत्म जागरण हेतु किया गया आध्यात्मिक प्रयत्न है, जो श्रेष्ठ सत्पुरुषों की सन्निधि, सत्संग और पवित्र संकल्प से सिद्ध होता है।
इसलिए आपके अंतःकरण में शुभता, श्रेष्ठता और दिव्य दैवीय संभावनाओं का जागरण हो। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – वृत्तियों की असुरता ही वृत्तासुरता है। हमारे भीतर भण्डारण की जो प्रवृत्तियाँ हैं वो अतिलोभ के कारण हैं, इसलिए महापुरुषों ने कहा कि अपरिग्रह करना सीखो। ये सामान्य प्रवृत्तियाँ हैं कि लोग मेरी अधीनता स्वीकार करें। किन्तु, ये समझना आवश्यक है कि जो आपके विचारों से सहमत नही हैं वो आपके शत्रु नहीं हैं। ये षडदर्शन, अनेक मत, पन्थ, सम्प्रदाय ये भारतीय संस्कृति का औदार्य ही तो हैं। मन बुद्धि, चेतना, वृत्ति, प्राण जो सबको अपने अधीन करना चाहता है, वही वृत्तासुर है। अब प्रश्न यह है कि कौन है जो उसकी वृत्तियों को बदल सकता है? इतने बड़े उद्यम के लिए तप चाहिये, आचरण की शुचिता चाहिए, अक्रोध और अलोभ चाहिए। जो दूसरों के हित और सम्मान के लिए जीया हो वही इस श्रेष्ठ कार्य को सम्पादित कर सकता है। जब महर्षि दधिचि की अस्थियां प्रवाहित होने जा रही थी उस समय वृत्तासुर की मन:स्थिति बदल गयी। उसने कहा कि मैं ऐसे व्यक्तित्व के चरणों का सेवक बनने को तैयार हूं। मैं अपना राज्य, यश, वैभव सब कुछ समर्पित करने को तैयार हूं, बस दधिचि जैसा पवित्र अंत:करण मुझे प्राप्त हो जाये और जिसने लोकहित में अपनी अस्थियाँ दान की हों वो वही भगवान को प्रिय है। तो आइये, हम भी एक दिन के लिए दधिचि बनें, और एक दिन अन्नदान, अक्षरदान एवं सम्मान का दान करें। हम अपनी सोच की फसल हैं। इसलिए अपने अंत:करण को आध्यात्मिक, प्राकृतिक,
नैसर्गिक बनाएं, क्योंकि इसी में जीवन की सार्थकता निहित है ..!
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – आज मनुष्य जन्म से ही विजय, विभूति और कामनाओं की पूर्ति के लिए वैभव चाहता है। उसके संशय, संदेह, भावनाएँ और जीवन में घटने वाली घटनाएँ अक्सर उसके आनंद को छिन्न-भिन्न कर देते हैं, तभी तो उसकी कामनाओं की पूर्ति में बाधा उत्पन्न होती है। इस बाधा को दूर करने के लिए आध्यात्मिक मार्ग ही एक चिरस्थायी समाधान हो सकता है। इसलिए हमें समत्व और सहजता की साधना करना चाहिए। हमें हमेशा यह प्रयत्न करना चाहिए कि हमारा अंतःकरण किस तरह शांत हो सकता है। हमें सही समय पर सही निर्णय करना तभी आएगा जब हम अपने जीवन के आनंद को चिरस्थायी बनाने की दिशा में आगे बढ़ेंगे।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने आधुनिक समय को रेखांकित करते हुए कहा कि हमारे जीवन में आध्यात्मिक गुणवत्ता आनी चाहिए। व्याकुलता को दूर करने की विधि बताते हुए कहा कि हमेशा अपनी परिस्थिति और अवस्थाओं का सच जानते रहें। हमेशा अपनी ही समीक्षा करते रहें। यही उपाय मनुष्य को सत्यता के निकट लाता है और मनुष्य अपने सच को स्वयं ही स्वीकार करने का अभ्यास करता है। आध्यात्मिक चिन्तन के अंतर्गत व्यक्ति को एकमात्र अतीन्द्रिय स्वरूप अनुसंधान के उद्देश्य को प्राप्त करने का संदेश दिया गया है, जिससे प्रत्येक मनुष्य अपनी स्वाभाविक प्रसन्नता, संतुष्टि तथा शांति को प्राप्त करते हुए श्रेष्ठ जीवन जीने की कला सीख जाए। इस प्रकार मनुष्य के भ्रम, भय, संदेह, तर्क-वितर्क और समस्याओं को अध्यात्म के द्वारा ही दूर किया जा सकता है। अध्यात्म भारतीय संस्कृति के प्राण हैं और भारतीय संस्कृति तो सम्पूर्ण वसुधा के प्राण हैं। अतः सनातन काल से भारत की संस्कृति ही मनुष्य जाति को आदर्शों, मर्यादाओं, प्रेम, त्याग और मानवीय मूल्यों का पाठ पढ़ाती आ रही है …।
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