पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – एक ही संकल्प का विस्तार सर्वत्र है। दृश्यमान-अदृश्यमान सत्ता में एक परमात्म-तत्त्व समाहित है; अतः सभी में आप और आप में सब समाया है…! संसार में सब रूप उसके हैं, लघु में समाया महान का वैभव। न जाने कितने रूप धारण कर वह जीव के सम्मुख आता है तथापि वह पहचान में नहीं आता। नाना रूप बनाकर जीवनपर्यंत लीलाएं करता हुआ भी वह वास्तविक स्वरुप में प्रकट नहीं होता। किसी घटना विशेष को निमित्त बना वह कभी-कभी अपनी स्मृति भी कराता है, परन्तु मोह-माया ग्रसित व संसार के खेलों में भुला हुआ जीव उसके समक्ष नहीं हो पाता। ईश्वर सर्वव्याप्त है, कण-कण में विद्यमान है, सम्पूर्ण ब्रह्मांड में ओत-प्रोत है। स्थावर-जंगम सृष्टि में सर्वत्र उसका ही वास है। वृक्ष-लताओं की हरीतिमा तथा विविध वर्ण के सुन्दर पुष्पों के विकास में उसी की झलक है। सतत् प्रवहमान नदियों और झरनों में कल-कल निनाद में, पक्षियों की मधुर कूक में और प्रातः काल की शीतल, मन्द और सुगन्धित पवन में उसी की उपस्थिति है। कहां तक कहें, शरीर की आन्तरिक प्रविधियों, रोम-रोम और हर श्वास में वह समाया हुआ है। कोई स्थान या पदार्थ ऐसा नहीं जहाँ वह न हो। “वह” सब में उसी प्रकार व्याप्त हैं जैसे तिल में तेल, पत्थर में अग्नि तथा दूध-दही में मक्खन-घी होता है, लेकिन उसे पाने का वैसा प्रयास नहीं किया जाता जिससे वह जानने में आ सके..।
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अव्वल अल्लाह नूर उपाया। कुदरत के सब बंदे। एक नूर ते सब जग उपजया। कौन भले कौन मंदे। गुरु ग्रन्थ साहब में जात-पाँत, ऊँच-नीच जैसी सामाजिक बुराई को दूर करने के लिये कितना सुंदर आध्यात्मिक उल्लेख हुआ है। न कोई छोटा, न कोई बड़ा सबके अन्दर उस परमात्मा की जोत ही समायी हुयी है। तो फिर मैं अपने को देखकर किस बात का अभिमान करूँ? या फिर किस बात का अफसोस करूँ? जैसे मैं उसका अंश हूँ। जिस नूर से सबकी उत्पत्ति हुई है। वैसे ही और भी सब हैं तो सब मेरे और मै सबका। वास्तव में इस वाणी का वैसे इतना ही मतलब निकलता है। लेकिन सन्तों की वाणी इतनी साधारण नहीं होती। एक नूर ते सब जग उपजया …. सारी अखिल सृष्टि उसी नूर रूप परम पुरुष से उत्पन्न है। जो आज परमात्मा के नाम से जाना जाता है। मनुष्य के दुःख का कारण उसकी अज्ञानता है, अज्ञानता के वश में हुआ जीव उस अखिल विश्व के पालनहार प्रभु को अपने अन्तर में न देख उसको बाहर खोजता है। “पूज्य आचार्यश्री” जी ने कहा – गुरुनानक देव एक महान संत, कवि, दार्शनिक और विचारक थे। अपने उपदेशों को उन्होंने खुद अपने जीवन में अमल किया। वे अपनी यात्राओ के दौरान हर व्यक्ति का आतिथ्य स्वीकार करते थे। मरदाना जो निम्न जाति के थे उन्हें आप अपना अभिन्न अंश मानते थे और हमेशा ‘भाई’ कह कर संबिधित करते थे। इस तरह आपने हमेशा भाईचारे की नींव रखी…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – यदि व्यक्ति ईश्वर के प्राकृतिक नियमों को समझकर उसके अनुरूप चले, धैर्य रखकर शुभ कार्य करते रहे और फल के लिए समय की प्रतीक्षा करे तो दूरगामी परिणाम शुभ होते हैं और जीवन में परम आनंद की प्राप्ति होती है। ईश्वर एक है! सदैव एक ही ईश्वर की अराधना करो। ईश्वर सब जगह और हर प्राणी में हैं। ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भी भय नहीं रहता। ईमानदारी से और मेहनत करके उदरपूर्ति करनी चाहिए। सदैव प्रसन्न रहना चाहिए, मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से जरूरत मंद को भी कुछ देना चाहिए। लोभ-लालच के लिए संग्रहवृति बुरी हैं। श्रीगुरुग्रन्थ साहेब की वाणी का आरम्भ ही मूल मन्त्र से होता है – यह मूलमंत्र हमें उस परमात्मा की परिभाषा बताता है जिसकी सब अलग-अलग रूप में पूजा करते हैं – “एक ओंकार सतनाम करता पुरख निरभऊ निरवैर अकाल मूरत अंजुनी स्वेम्भ गुरु प्रसाद …” एक ओंकार — परमात्मा एक है ! सतनाम– परमात्मा का नाम सच्चा है ! हमेशा रहने वाला है ! करता पुरख– वो सब कुछ करने वाला या बनाने वाला है ! निरभऊ– परमात्मा को किसी का डर नहीं है ! निरवैर– परमात्मा को किसी से वैर (दुश्मनी) नहीं है ! अकाल मूरत– परमात्मा का कोई आकार नहीं है ! अंजुनी– वह जुनियो (योनियों) में नहीं पड़ता ! न वह पैदा होता है, और न ही मरता है ! स्वेम्भ– उसको किसी ने नहीं बनाया, न ही पैदा किया है, वह स्वयं प्रकाश है ! गुरु प्रसाद– गुरु की कृपा से परमात्मा सबके ह्रदय में बसता है…।
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