जहाँ आस्था है, वहाँ रास्ता है : स्वामी अवधेशानन्दं जी महाराज

पूज्य सद्गुरुदेव आशीषवचनम्
          ।। श्री: कृपा ।।
न्यूज़ डेस्क :  पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – गीता हमारे प्राचीन आध्यात्मिक ज्ञान का सार है। यह मानव जाति के सामने आने वाली समस्त समस्याओं का समाधान करता है और शांति, साहस और प्रसन्नता प्रदान करता है ..! एक समग्र अध्यात्म का प्रतिपादक ग्रन्थ है – गीता। भगवद् गीता महान ग्रन्थ है। इसके उपदेश किसी जाति विशेष या देश विशेष के लिए नहीं, अपितु सम्पूर्ण मानव समाज के लिए हैं। इसकी शिक्षाएँ सर्वकालिक, सार्वदेशिक हैं। गीता के उपदेशों का सार मर्म अपनाकर धारण कर व्यवहारिक जीवन में क्रियान्वित कर मनुष्य अध्यात्म की चरम उपलब्धि अर्जित कर धन्य हो सकता है। अध्यात्म का वास्तविक अर्थ यही है कि हम सजग, जागरूक, चैतन्य, संवेदनशील, सक्रिय बनें। आध्यात्मिक व्यक्ति होना अर्थात् विवेक का जागृत होना है। विवेक संपन्न प्राणी धर्म-अधर्म, सत्य- असत्य, शुचि-अशुचि, आत्म-अनात्म, भेद-अभेद, ज्ञात-अज्ञात, सापेक्ष-निरपेक्ष में अंतर समझकर परमार्थ एवं सर्वकल्याण के लिए जो श्रेष्ठ है, उसका चयन करता है। अध्यात्म का मूल भावार्थ मानवीय स्वभाव को जानना, समझना और मानना है। अध्यात्म के विषय पर योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण जी का सीधा उत्तर है – ”अक्षरं ब्रह्म परमं, स्वभावों अध्यात्म उच्यते …” यानी, परम अक्षर अर्थात् कभी भी नष्ट न होने वाला तत्व ब्रह्म है और प्रत्येक वस्तु का अपना मूलभाव (स्वभाव) अध्यात्म है। अध्यात्म पारलौकिक विश्लेषण या दर्शन नहीं है। अध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है – ‘स्वयं का अध्ययन; अध्ययन-आत्म। अध्यात्म का ज्ञान अर्थात्, निजी अध्ययन संसार में रहने का प्रथम सोपान है। कर्म प्रवीणता के बिना कोई उपलब्धि नही। मूल बात है स्वयं का विवेचन, स्वयं के अंतस् का अध्ययन, भीतर की ऐषणाओं के केन्द्र बिन्दु की खोज, अपने राग-द्वैष, काम-क्रोध, राग-विराग आदि के स्रोत की जानकारी। अतः पूर्वजों ने इसे ही अध्यात्म कहा है …।
 पूज्य आचार्यश्री जी ने कहा – पुष्प उस आशा का, उम्मीद का प्रतीक है जो जीवन के प्रति आस्था बनाए रखती है। जहाँ आस्था है, वहाँ रास्ता है। सच्चाई यह है कि आस्था स्वयं सुख है, जबकि संशय स्वयं में दुःख है। आस्था से विश्वास जुड़ा हुआ है और विश्वास से हम जुड़े हुए हैं। इसके टूटने से हमारा अस्तित्व बिखरने लगता है। इसका असर हमारे आस-पास और समाज पर भी होने लगता है। अगर परिवार, समाज, देश से हम प्रेम करते हैं तो उसके पीछे विश्वास की ही शक्ति है। प्रेम की बुनियाद ही विश्वास है। विश्वास टूटा कि प्रेम टूटा। जो टूटे वो श्वास है, जो कभी ना टूटे – वो विश्वास है। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा कि श्रेष्ठ कार्य सामूहिक प्रयत्न से ही सिद्ध होते हैं। इसलिए अध्यात्म हमें जोड़ना सिखाता है और जिसे जोड़ना आ जाता है, उसमें नेतृत्व का गुण आ जाता है, क्योंकि अकेली उंगली बोझ नहीं उठा सकती, जब सारी उंगलियां मिल जाएं तो बोझ उठाने में कठिनाई नहीं आती। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा कि शील-संयम-सदाचार व आहार-विहार की शुद्धि से जीवन में श्रेष्ठता का प्रस्फुटन होता है। बाह्यन्तर शुचिता व स्व-धर्मानुपालन ही श्रेयस्कर एवं कल्याणकारक है। अतः प्राकृतिक नियमों का निर्वहन करें ! इस ‘कोरोना’ के कठिन काल में साधनहीन बन्धु-भगिनियों की सेवा व सहयोग के लिए आगे आएँ ! जीवन का पहला पुरुषार्थ धर्म है। यदि हम इसका पालन कर रहे हैं तो जप-तप की भी बहुत आवश्यकता नहीं है। धर्म से ही वर्तमान को आनन्दित बनाया जा सकता है। जीवन में धर्माचरण है तो अर्थ का भी ठीक से निवेश होगा। हमारी संस्कृति में अर्थ की उपेक्षा नहीं की गई है। बिना धर्म के प्राप्त अर्थ से भोग-वासनाएं प्रचंड हो जाएंगी। इसलिए सीखने के लिए श्रद्धा चाहिए। जीवन में आस्था, श्रद्धा और विश्वास का निवेश करना सीखना चाहिए। अतः हमें एक लक्ष्मण रेखा भी खींचना चाहिए, जो हमें मर्यादित बनाये …। 

पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मानवीय जीवन की सिद्धि के लिए अखण्ड-प्रचण्ड पुरुषार्थ की आवश्यकता है और स्वाध्याय बड़ा तप है। इसलिए अधिकाधिक स्वाध्याय करें और प्रत्येक पल परमात्मा की स्मृति में, ब्रह्मभाव में रहें। यदि आप स्वयं को परेशान, खिन्न अथवा पराभूत अनुभव कर रहे हैं तो आपके दु:ख के मूल में आपका अज्ञान ही है। आपके पतन के लिए आपके प्रमाद अथवा अज्ञान के अतिरिक्त अन्य कोई भी वस्तु, व्यक्ति अथवा घटना उत्तरदायी नही है। आत्म-विस्मृति ही दुःख का मूल कारण है। समुद्र मंथन का उदाहरण देते हुए “आचार्यश्री” जी ने कहा कि प्रतीकात्मक रूप में समुद्र मंथन का अर्थ मनोमंथन से है। मन के भीतर ही विष और अमृत दोनों विद्यमान हैं। देव और दानवों के सामूहिक प्रयत्न के दृष्टान्त को समझाते हुए पूज्य गुरुदेव जी कहते हैं कि जीवन में श्रेष्ठ कार्य सामूहिक पुरुषार्थ से ही सिद्ध और फलीभूत होते हैं। समुद्र मंथन में विष के प्राकट्य को गुरुदेव विवेक-विचार का अभाव मानते हैं। इसलिए आपत्ति काल में पूर्वजों का एवं सद्विचारों का आश्रय लेना चाहिए। अतः भगवान शिव विचार और विवेक के देवता हैं, उनके स्मरण से जीवन के विष का निवारण होता है …।

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