पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – अपने सच्चे, दिव्य स्वभाव को भूल जाना दुःख की जड़ है। सार्थक जीवन के लिए ईश्वरीय स्मरण में जीएं। स्वभाव में रहें। अपरिमित आनन्द, अपार शान्ति, असीम सुख और अद्भुत रस स्वयं में निहित है ..! इच्छायें ही सभी कष्टों की जड़ है। जिसकी इच्छाएं समाप्त हो जाती है उसके जीवन में चिंताओं का कहीं कोई स्थान नहीं रहता तथा उसका मन भी उल्लासपूर्ण हो जाता है। वस्तुतः वही इस संसार का सच्चा बादशाह है, जो किसी इच्छा या आकांक्षा के बिना प्रभु का स्मरण करता है उसे आत्म साक्षात्कार का लाभ मिलता है। स्वभाव में रहना ही सच्ची आध्यात्मिकता है। जीवन का हर पल शुभता, ऐश्वर्य, माधुर्य और अनन्त सम्भावनाओं से आपूरित है। जैसे ही मानवी चेतना अंतर्मुखी होती है; स्वयं में निहित परिपूर्णता, सनातनता और नित्यता का अनुभव सहज, प्रशान्त और आनन्द में परिवर्तित होने लगता है। अतः स्वाभाविक जीवन अभ्यासी बनें । अपने स्वभाव को प्रकृति के अनुकूल बनाएं। सुख शाँति और प्रेम से जीवन जीना ही हमारा स्वभाव है। प्रेम हर व्यक्ति के हृदय में है।
हमारा मूल स्वभाव प्रेम ही है। प्रेम में हम सारी उम्र बिता सकते हैं, जबकि क्रोध में कुछ पल बिताना भी हमारे लिए बहुत कठिन हो जाते हैं। क्रोध विजातीय है, कामना भी विजातीय है, अन्य जितने भी विकार हमारे भीतर उत्पन्न होते हैं सभी विजातीय हैं, तभी हम उन्हें भीतर नहीं रख पाते। झट प्रकट कर देते हैं। दया तो प्रकृति की देन है, क्रूरता सिखलाई जाती है। प्रेम कोई सीखने की बात नहीं है, यह मनुष्य का स्वभाव है। जिस प्रकार स्वस्थ रहना, सुखी रहना, आनंदित रहना, मनुष्य की चाहत है, उसी प्रकार प्रेम करना, प्रेम का अनुभव करना और अपने जीवन को प्रेममय बनाना भी मनुष्य की चाहत है। दरअसल, प्रेम की स्वाभाविक चाहत से विमुख होना बीमारी का लक्षण है। इस दुनिया में प्रेम के सिवाय और कुछ है ही नहीं। नदियाँ सागर से प्रेम करती हैं, भंवरे फूल से प्रेम करते हैं। चांद, सूरज, ग्रह-नक्षत्र आदि सभी एक-दूसरे से प्रेम करते हुए हमें जीवनदान देते हैं तो ऐसा मान लेना चाहिए कि प्रकृति में प्रेम के सिवा और कुछ नहीं है। ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, हिंसा, क्रोध इन सभी को विकार कहा गया है। इन विकारों के जीवन में आते ही मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृक्तियाँ विकृत हो जाती हैं। इसलिए जब कभी हम अप्रेम की बात सोचते हैं तो उसमें हमारे व्यक्तित्व का मूल स्वरूप नष्ट हो जाता है। इसलिए हमारा अपना स्वरूप है – प्रेम स्वाध्याय और शालीनता …।
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पूज्य “आचार्यश्री’ जी ने कहा – प्रेम और सत्य का हम संग करें तो जीते-जी हम स्वर्ग पा लें। क्या संभव नहीं होता है प्रेम और सत्य से। पहले हम प्रेम की बात करें। जीवन में प्रेम हो तो घोर निराशाओं में भी हममें आशा का संचार हो सकता है। प्रेम के प्रवाह से जड़ चेतन में, अंधकार प्रकाश में, मिथ्या सत्य में, दु:ख आनंद में, भेद-अभेद में, कोलाहल शांति में और मृत्यु अमरत्व में रूपांतरित होने लगते हैं। प्रेम में यह अनुभूति होने लगती है कि तुच्छ महान में और सूक्ष्म विराट रूप में बदल गया है। जैसे ही मनुष्य प्रेम की गहराई में डूबता है, वैसे ही उसके भीतर कुछ नया होने लगता है और कुछ दिव्य बनने लगता है। प्रेम के स्पर्श से ही हृदय में श्रेष्ठ भावनाएं उमड़ने लगती हैं। प्रेम के प्रभाव से मनुष्य के सद्गुण जगने लगते हैं, मन में प्रसन्नता का संचार होने लगता है। जैसे ही ये परिवर्तन होते हैं, हमारी सारी दिनचर्या ही बदल जाती है।
सत्य को वाणी का तप कहा गया है। इसका अर्थ है कि सत्य बोलने वाले व्यक्ति का मन निर्मल होना चाहिए। उसमें किसी से दुराव – छिपाव या चोरी का भाव नहीं होना चाहिए। जो लोग मन, वाणी और कर्म की अभेदता साध लेते हैं, उन्हें सत्य का साक्षात्कार अवश्य होता है। सत्य कहीं बाहर से नहीं आता। यह मनुष्य के स्वभाव का ही एक आधार है। हमारे मन में ही क्रोध, आवेश, स्नेह आदि सभी प्रवृत्तियां उपस्थित रहती हैं। इनके मेल से हमारा स्वभाव बनता है, पर स्वभाव के निर्माण में हमारे संस्कार, सामाजिक परिवेश, शिक्षा और संयम आदि का भी काफी योगदान होता है। हमारे व्यक्तित्व में हमारे स्वभाव का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। श्रीमद्भगवद् गीता में तो यहां तक कहा गया है कि जैसा स्वभाव वैसा मनुष्य। स्वभाव जितना सरल, कुंठामुक्त, पूर्वाग्रह रहित, शांत तथा सत्याचरण से युक्त होगा, मनुष्य उतना ही सहृदय, उदार एवं दयालु होगा। हमारे जीवन मे धर्म तभी घटित होगा जब हम अहिंसा, संयम और तप का आचरण करेंगे। अतः इस आचरण के द्वारा हमें आत्म अनुभूति होगी और उससे आत्म-रमण और आत्म-चिन्तन के द्वारा हम धर्म को अपने भीतर तक उतार पायेंगे …।
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