न्यूज़ डेस्क : दुनियाभर में कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण के बीच अलग-अलग देशों में कई तरह के शोध हो रहे हैं। भारतीय वैज्ञानिक समेत दुनियाभर के शोधकर्ता और विशेषज्ञ कोरोना के लक्षणों, इसकी संरचना, प्रभाव, इलाज, दवा, वैक्सीन आदि को लेकर शोध कर रहे हैं। कोरोना महामारी की शुरुआत से ही कई शोधों के आधार पर यह बात बताई जाती रही है कि कोरोना वायरस से कमजोर इम्यूनिटी वालों को, बुजुर्गों को या पहले से गंभीर बीमारियों से जूझ रहे लोगों को ज्यादा खतरा रहता है। लेकिन क्या कोरोना संक्रमण का ब्लड ग्रुप से भी गहरा संबंध है? मार्च में चीन में और फिर जून में जर्मनी में इस संबंध में रिसर्च स्टडी की गई थी और ब्लड ग्रुप के आधार पर कोरोना संक्रमण के खतरे की बात कही गई थी। अब वैज्ञानिकों के एक अंतरराष्ट्रीय शोध टीम ने उन अध्ययनों को खारिज कर दिया है। आइए जानते हैं इस बारे में विस्तार से:
अंतरराष्ट्रीय शोध टीम के वैज्ञानिकों ने दी महत्वपूर्ण जानकारी
अमेरिका के रिसर्च जर्नल ‘नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इंफॉर्मेशन’ में प्रकाशित इस अध्ययन में कहा गया है कि किसी का ब्लड ग्रुप ‘ए’ या फिर ‘ओ’ होने से उसमें वायरस संक्रमण का खतरा कम या अधिक नहीं हो सकता। एक अंतरराष्ट्रीय शोध टीम के वैज्ञानिकों ने अपने इस अध्ययन में यह महत्वपूर्ण जानकारी दी है।
पूर्व में हुए अध्ययनों के आधार पर यह माना जा रहा था कि ‘ए’ ब्लड ग्रुप वाले लोग वायरस संक्रमण की चपेट में आसानी से आ जाते हैं, जबकि ‘ओ’ ग्रुप वाले लोगो को अपेक्षाकृत कम खतरा रहता है।
ब्लड ग्रुप संबंधी एक भी तथ्य नहीं पाया
वैज्ञानिकों ने पूर्व में हुए अध्ययनों को खारिज करते हुए कहा है कि ब्लड ग्रुप से कोरोना संक्रमण का खतरा तय नहीं होता। अमेरिका, इस्रायल, फ्रांस, ब्रिटेन के कई संस्थानों ने संयुक्त रूप से इस अध्ययन में सहभागिता की है।
मैसाचुसेट्स हॉस्पिटल की विशेषज्ञ और इस अध्ययन की अग्रणी शोधकर्ता डॉ. अनाहिता दुआ का कहना है कि अध्ययन में हमने ऐसा एक भी तथ्य नहीं पाया, जिसके आधार पर यह माना जाए कि ओ, ए, बी या ए-बी ब्लड ग्रुप के कारण किसी व्यक्ति को संक्रमण का ज्यादा अथवा कम खतरा हो सकता है।
पूर्व के शोध के विपरीत परिणाम आना आम बात
इस अध्ययन में शामिल फ्रांसीसी शोधकर्ता जैक्स ली पेंडू का कहना है कि ब्लड ग्रुप और कोरोना संक्रमण के बीच कोई संबंध नहीं पाया गया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि वैज्ञानिक अध्ययन एक सतत प्रक्रिया है, इसमें जितनी जानकारियां जुड़ती जाती हैं, उनके आधार पर होने वाले आगे के अध्ययनों के निष्कर्ष पूर्व में हुए शोधों से एकदम विपरीत भी हो सकते हैं।
पूर्व में हुए शोध से घबरा गए थे लोग
पिछले महीने न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एक शोध अध्ययन में दावा किया गया था कि ‘ए’ ब्लड ग्रुप वाले लोगों में दूसरे ब्लड ग्रुप वाले लोगों से 45 फीसदी अधिक संक्रमण का खतरा होता है। हांगकांग के एक अध्ययन में यह दावा किया गया था कि सार्स जैसे वायरस का असर ‘ओ’ ब्लड ग्रुप वाले लोगों पर कम होता है। इन अध्ययनों से लोगों के अंदर घबराहट पैदा हुई थी।
चीन और जर्मनी में हुए शोधों ने भी चिंता बढ़ाई थी
मालूम हो कि मार्च में इसको लेकर चीन के हुबेई प्रांत के झोंगनान अस्पताल में एक रिसर्च स्टडी की गई थी, जिसमें बताया गया था कि ‘ए’ ब्लड ग्रुप वाले लोगों को संक्रमण का ज्यादा, जबकि ‘ओ’ ब्लड ग्रुप वाले लोगों को कम खतरा रहता है।
इसके बाद जून की शुरुआत में जर्मनी की कील यूनिवर्सिटी में भी इस संबंध में शोध अध्ययन किया, जिसके परिणाम चीन की स्टडी से मिलते थे। इन अध्ययनों के बाद उपचार को लेकर डॉक्टरों में भी असमंजस की स्थिति थी, जबकि आम लोगों के बीच भी खूब चर्चा थी।
ब्लड ग्रुप के आधार पर लोग डरे नहीं
पूर्व में हुए तमाम वैज्ञानिक दावों को ‘नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इंफॉर्मेशन’ में प्रकाशित इस नए शोध अध्ययन ने खारिज किया है। ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग के कार्डियोवैस्कुलर विशेषज्ञ सक्तिवेल वैयापुरी के मुताबिक ए ब्लड ग्रुप वाले लोगों को घबराने की जरूरत नहीं है। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि और अन्य ब्लड ग्रुप वाले लोग भी ये सोचकर लापरवाही न करें कि उन्हें वायरस संक्रमण का कम खतरा रहेगा।
मालूम हो कि जर्मनी की कील यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में दावा किया था कि ए ब्लड ग्रुप (Blood Group A type) वाले लोगों को कोरोना संक्रमण का ज्यादा खतरा रहता है। ऐसे लोगों में संक्रमण का स्तर गंभीर हो सकता है और उन्हें वेंटिलेटर तक की जरूरत पड़ सकती है। अन्य ब्लड ग्रुप वालों की अपेक्षा ए ब्लड ग्रुप वालों में यह खतरा छह फीसदी तक ज्यादा है।
शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में पाया था कि ए ब्लड ग्रुप वाले कोरोना मरीजों में डीएनए का एक खास हिस्सा ऐसा है, जो ज्यादा जोखिम का कारण हो सकता है। शोधकर्ताओं का कहना था कि ए ब्लड ग्रुप वाले कोरोना पीड़ितों को सांस की तकलीफ होने की संभावना 50 फीसदी तक ज्यादा है। उन्हें ऑक्सीजन की ज्यादा जरूरत पड़ सकती है या फिर उन्हें वेंटिलेटर पर भी रखना पड़ सकता है।
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