धर्म वही है जो किसी को कष्ट नहीं देता : स्वामी अवधेशानन्दं जी महाराज

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
            ।। श्री: कृपा ।।
🌿
 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – पुरुषार्थ न केवल लौकिक संग्रहण के लिए उपयोगी है, अपितु दैव अनुग्रह कारक भी है। जप-तप, यज्ञ आदि पारमार्थिक उपक्रम पुरुषार्थ से ही सिद्ध होते हैं। अतएव लौकिक-पारलौकिक अनुकूलताओं के सृजन और  जीवन की सिद्धि के लिए पुरुषार्थी बनें ..! हिन्दू धर्म में पुरुषार्थ से तात्पर्य मानव के लक्ष्य या उद्देश्य से है। (‘पुरुषैर्थ्यते इति पुरुषार्थः’)। पुरुषार्थ = पुरुष+अर्थ = अर्थात् मानव को अपना लक्ष्य प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। प्रायः मनुष्य के लिये वेदों में चार पुरुषार्थों का नाम लिया गया है – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसलिए इन्हें ‘पुरुषार्थचतुष्टय’ भी कहते हैं। महर्षि मनु पुरुषार्थ चतुष्टय के प्रतिपादक हैं। योगवासिष्ठ के अनुसार सद्जनों और शास्त्र के उपदेश अनुसार चित्त का विचरण ही पुरुषार्थ कहलाता है। भारतीय संस्कृति में इन चारों पुरूषार्थो का विशिष्ट स्थान रहा है।
वस्तुतः इन पुरूषार्थो ने ही भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिकता के साथ भौतिकता का एक अद्भुत समन्वय स्थापित किया है। एक विवेकशील प्राणी का लक्ष्य होता है – परमात्मा से मिलन। इसके लिए वह जिन उपायों को अपनाता है वे ही पुरुषार्थ हैं। हिंदू चिंतन के अनुसार इस पुरुषार्थ के चार अंग हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। हमारे महान ऋषियों ने मानव जीवन में इन अंगों को अनिवार्य मानते हुए इन्हें अपनाने का उपदेश दिया है। धर्म क्या है? पुरुषार्थों में पहला स्थान धर्म का है। जीवन में जो भी धारण किया जाता है वही धर्म कहलाता है। धर्म मनुष्य को अच्छे कार्यों की ओर ले जाता है। वह व्यक्ति की विभिन्न रुचियों, इच्छाओं और आवश्यकताओं के बीच एक संतुलन बनाए रखता है।
‘महाभारत’ के अनुसार धर्म वही है जो किसी को कष्ट नहीं देता। धर्म में लोक-कल्याण की भावना निहित है। मनु के अनुसार जो व्यक्ति धर्म का सम्मान करता है, धर्म उस व्यक्ति की सदैव रक्षा करता है। अतः धर्म के मार्ग पर चलकर व्यक्ति इस संसार में तथा परलोक में शांति प्राप्त कर सकता है …।
🌿 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनुष्य समाज में रहकर अनेक प्रकार के क्रियाकलाप करता है। धर्म उसके सामाजिक आचरण को एक निश्चित और सकारात्मक रूप देता है। भारतीय संस्कृति में अर्थ का क्या महत्व है? अर्थ का सीधा संबंध जीवनयापन करने में सहायक भौतिक उपादानों से है। अधिकांश लोगों का मानना है कि भारतीय संस्कृति में परलोक एवं मोक्ष को ही प्रमुखता दी गई है, इहलोक (सांसारिक जीवन) वहां उपेक्षित है। यह एक गलत धारणा है। वास्तव में भारतीय संस्कृति में इहलोक एवं परलोक दोनों को समान महत्व दिया गया है। मनुष्य के इहलौकिक एवं पारलौकिक उद्देश्यों के मध्य जितना उदात्त एवं उत्कृष्ट सामंजस्य भारतीय संस्कृति में है उतना किसी अन्य संस्कृति में नहीं। इसी सामंजस्य के कारण ही भारत जहां दर्शन के क्षेत्र में ऊंचाई पर पहुंचा, वहीं उसकी भौतिक उपलब्धियां भी विशिष्ट रहीं। यह सही है कि भारतीय संस्कृति में मनुष्य का अंतिम लक्ष्य “मोक्ष” प्राप्त करना है, किंतु “अर्थ” का महत्व भी इस संस्कृति में कम नहीं है। अर्थ को यदि जीवन का अंतिम लक्ष्य माना जाता तो भारत संभवत: अर्थ का दास बनकर ही रह जाता। काम का मर्यादित रूप क्या है? भारतीय संस्कृति में पुरुषार्थों के अंतर्गत “काम” की भी गणना की गई है। मनुष्य के जीवन में काम का भी उतना ही महत्व है, जितना धर्म व अर्थ का। मनुष्य की रागात्मक प्रवृत्ति का नाम है – काम। आहार, निद्रा, भय एवं काम मनुष्य एवं पशुओं में सामान्य रूप से पाए जाते हैं, मगर मनुष्य एक सामाजिक एवं बुद्धिसंपन्न प्राणी है। वह प्रत्येक कार्य बुद्धि की सहायता से करता है। पशुओं में काम स्वाभाविक रूप से होता है। उनमें विचार तथा भावना नहीं होती है। मनुष्य का काम संबंध शिष्ट एवं नियंत्रित होता है। मनुष्य के इस व्यवहार को मर्यादित करने के लिए स्त्री-पुरुष संबंध को स्थायी, सभ्य एवं सुसंस्कृत रूप दिया गया। विवाह द्वारा मनुष्य की उच्छृंखल काम वासना को मर्यादित किया गया। अतः भारतीय परंपरा में काम का उद्देश्य संतानोत्पत्ति माना गया है, काम वासना की पूर्ति नहीं …। 
🌿
 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मोक्ष कैसे संभव है? धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थों में गहरा संबंध है। मोक्ष से धर्म का प्रत्यक्ष संबंध है। सभी प्राणी केवल धर्म का आश्रय ग्रहण कर तथा उसी के अनुसार आचरण कर मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। इसलिए कहा गया है कि मनुष्य अर्थ एवं काम का सेवन करता हुआ मोक्ष को प्राप्त करे। कौटिल्य ने कहा है कि व्यक्ति संसार में रहकर सारे ऐश्वर्य प्राप्त करे, उपभोग करे, धन संचय करे, किंतु सब धर्मानुकूल हो। उनके मूल में धर्म का अनुष्ठान हो। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि धर्मपूर्ण काम में ईश्वर विद्यमान रहता है।
इस प्रकार धर्मानुकूल अर्थ व काम का सेवन करने से मनुष्य परम पुरुषार्थ “मोक्ष” के समीप पहुंचता है। पुरुषार्थ की अवधारणा भौतिक एवं आध्यात्मिक जगत के बीच संतुलन स्थापित करती है। पुरुषार्थों के माध्यम से ही मनुष्य के जीवन का सर्वांगीण विकास हो पाता है। अतः पुरुषार्थ का सिद्धांत भारतीय संस्कृति की आत्मा है। और, “आत्म-अवबोध” ही संसार का श्रेष्ठतम पुरूषार्थ है …।

Comments are closed.