मौत से जिंदगी तक का सफर, 99% मरे बच्चे को डॉक्टरों ने दिया नया जीवनदान

नोएडा। डॉक्टरों को भगवान का दूसरा रूप कहा जाता है। इस मिसाल की बानगी उस वक्त देखने को मिली जब 99 फीसद मृत घोषित बच्चे को डॉक्टरों ने नया जीवनदान दे दिया। मौत की दहलीज पर खड़े इस मासूम के परिजनों ने भी नहीं सोचा था कि उनके जीवन में एक बार फिर खुशियों की बहार आएगी और बेटा दोबारा उनकी बांहों में खेल सकेगा।

99 फीसद मृत घोषित

उत्तराखंड के एक मेडिकल कॉलेज द्वारा 99 फीसद मृत घोषित हो चुके पांच वर्षीय मरीज दीपांशु के पिता ने बेटे की जिंदगी की बुझ रही लौ के बीच हिम्मत की अलख जगा कर उम्मीद की रोशनी के साथ हलद्वानी से वेंटिलेटर पर ही नोएडा के चाइल्ड पीजीआइ आने का फैसला किया।

परिजनों को निर्देश देती रहीं डॉक्टर 

जिंदगी और मौत के बीच जारी इस सफर के दौरान चाइल्ड पीजीआइ की मैटोलॉजी विभाग की हेड डॉ. नीति राधाकृष्णन परिजनों को निर्देश देती रहीं। अभी एक घंटे का भी सफर नहीं हुआ था कि दीपांशु को हार्ट अटैक आ गया। हृदय को पंप करने के लिए शॉक देने पर दोबारा कुछ मिनट बाद धड़कनें चल पड़ीं और मासूम आखिरी सांस तक लड़ता हुआ नोएडा आ पहुंचा। यहां करीब एक हफ्ते के इलाज के बाद दीपांशु दोबारा उठ खड़ा हुआ।

26-27 दिसंबर को पहुंचे नोएडा

मूलरूप से उत्तराखंड में पिथौरागढ़ के रहने वाले दीपांशु के पिता रघुबर सिंह जब 26-27 दिसंबर को नोएडा के चाइल्ड पीजीआइ पहुंचे, यहां डॉ. नीती राधाकृष्णन की अगुवाई में डॉक्टरों ने जब सभी तरह की जांच की तो उन्हें भी एक फीसद से भी कम उम्मीद दिखी और दीपांशु को वेंटिलेटर पर भर्ती कर लिया। इस दौरान अमेरिका, इंग्लैंड जैसे देशों में इस्तेमाल होने वाले अत्याधुनिक व अंतरराष्ट्रीय मानकों पर इलाज व इंजेक्शन देना शुरू किया गया, ताकि दिमाग समेत दूसरे अंगों में हो रहे रक्त स्राव को रोका जा सके।

डॉक्टरों के सामने थी बड़ी चुनौती 

दिमाग में हुई भारी क्लॉटिंग को भी हटाना डॉक्टरों के लिए बड़ी चुनौती थी, लेकिन उच्च गुणवत्ता वाली ड्रग व इंजेक्शन के प्रभाव से दिमाग की क्लॉटिंग को भी दूर किया। करीब एक हफ्ते तक जटिल चिकित्सीय उपचार देने के बाद दीपांशु को डॉक्टरों ने अपने पैरों पर चला दिया। अब वह ठीक है, लेकिन कुछ दिनों तक लगातार फैक्टर-8 के इंजेक्शन लगते रहेंगे।

सात माह की उम्र में शुरू हुई थी दिक्कत

दीपांशु के पिता रघुबर दास ने बताया कि जब दीपांशु सात माह का था, तभी उसके घुटनों पर काले व नीले धब्बे दिखाई दिए, लेकिन जानकारी न होने की वजह से घरेलू इलाज किया। फिर पिथौरागढ़ में ही दिखाते रहे। ठीक नहीं होने पर हल्द्वानी से लेकर, देहरादून, दिल्ली के एम्स व चंडीगढ़ पीजीआइ तक दिखाया। एम्स में ही कंफर्म हुआ कि दीपांशु को हीमोफीलिया है। इसके लिए फैक्टर-8 के इंजेक्शन लगते रहे। गत 15 दिसंबर को दीपांशु को अचानक सिर व पेट में दर्द हुआ तब देहरादून और उसके बाद हल्द्वानी में भर्ती कराया गया फिर नोएडा में भर्ती कराया गया।

दस हजार में से एक बच्चे को होती है यह बीमारी 

चाइल्ड पीजीआइ की डॉ. नीति राधाकृष्णन ने बताया कि बच्चे को सीवियर हीमोफीलिया (ए टाइप का) था। दस हजार में से एक बच्चे को यह होता है। यह एंटीबॉडी बनने से रोकते हैं। इसमें इलाज पर आने वाला खर्च सरकार ने वहन किया।

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