पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – जिस प्रकार सागर के पास सरितायें और सुरभित-पल्लवित पुष्पों के समीप भ्रमर-समूह स्वतः स्फूर्त चले आते हैं, उसी प्रकार आध्यात्मिक अन्त:करण संपन्न साधक इहलौकिक-पारलौकिक अनुकूलताओं का स्वाभाविक अधिकारी बन जाता है। इसलिए पात्रता का विकास साधक का प्रथम लक्ष्य होना चाहिए ..! आध्यात्मिक होने का अर्थ है कि आप अपने अनुभव के धरातल पर जानते हैं कि मैं स्वयं अपने आनन्द का स्रोत हूं। यह केवल आपके अंदर ही घटित हो सकती है। आध्यात्मिक प्रक्रिया ऊपर या नीचे देखने के बारे में नहीं है। आध्यात्मिक होने का मतलब है – जो भौतिक से परे है उसका अनुभव कर पाना। अगर आप सृष्टि के सभी प्राणियों में भी उसी परम-सत्ता के अंश को देखते हैं जो आपमें है तो आप आध्यात्मिक हैं।
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आपको बोध है कि आपके दु:ख, आपके क्रोध, आपके क्लेश के लिए कोई और जिम्मेदार नहीं है, बल्कि आप स्वयं इनके निर्माता हैं। आप यदि वास्तव में आध्यात्मिक मार्ग पर हैं तो आप जो भी कार्य करते हैं, अगर उसमें केवल आपका हित न हो कर सभी की भलाई निहित है तो फिर आप आध्यात्मिक हैं। अगर आप अपने अहंकार, क्रोध, लालच, ईर्ष्या, द्वेष और पूर्वाग्रहों को गला चुके हैं तो फिर आप आध्यात्मिक हैं। भले बाहरी परिस्थितियां चाहे जैसी हों, लेकिन उनके बावजूद भी अगर आप अपने अंदर से हमेशा प्रसन्न और आनन्द में रहते हैं तो आप आध्यात्मिक हैं। आध्यात्मिक प्रक्रिया एक यात्रा की तरह है। आध्यात्मिकता मूल रूप से मनुष्य की मुक्ति के लिये है, यह अपनी चरम क्षमता में खिलने के लिये है। आध्यात्मिकता का अर्थ है कि अपने विकास की प्रक्रिया को तेज करना। इसलिए अगर आप अपने ऊपर बाहरी परिस्थितियों का असर नहीं होने देते हैं तो आप स्वाभाविक तौर पर आध्यात्मिक हैं …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – अन्तःकरण की पवित्रता के बिना आत्मोन्नति जो कि मनुष्य का प्रधान लक्ष्य है, सम्भव नहीं। प्रेम और धन्यता में जीना ही वास्तविक जीना है, जो हर इंसान का जन्म सिद्ध अधिकार हैं। आध्यात्मिक पवित्रता द्वारा ही मनुष्य में सच्चे प्रेम, भक्ति, दया, उदारता, परोपकार आदि की भावनायें जन्म ले सकती हैं और देवत्व का विकास हो सकता है। वह मनुष्य निश्चय ही भाग्यवान है जिसने अपने अन्तःकरण को निर्मल बना लिया है और जिसका जीवन आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख हो रहा है। अध्यात्म जीवन का वह तत्वज्ञान है, जिसके आधार पर मनुष्य विश्व ही नहीं अखण्ड ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण ऐश्वर्य को उपलब्ध कर सकता है। अध्यात्म ज्ञान के बिना सारा वैभव, सारा ऐश्वर्य और सारी उपलब्धियां व्यर्थ हैं। जो भाग्यवान अपने परिश्रम, पुरुषार्थ एवं परमार्थ से थोड़ा-बहुत भी अध्यात्म लाभ कर लेता है वह एक शाश्वत सुख का अधिकारी बन जाता है। व्यवहार जगत में अनेक सीखने योग्य ज्ञानों की कमी नहीं है। लोग इन्हें सीखते हैं, उन्नति करते हैं, सुख-सुविधा के अनेक साधन जुटा लेते हैं। किन्तु, इस पर भी जब तक वे इस ओर उन्मुख नहीं होते तब तक वास्तविक सुख-शान्ति नहीं पा सकते। आध्यात्मिक मार्ग पर चलने का अर्थ है कि आप मुक्ति की ओर बढ़ रहे हैं, चाहे आपकी पुरानी प्रवृत्तियां, आपका शरीर और आपके गुण-स्वभाव कैसे भी हों ! लेकिन, अस्तित्व में एकात्मकता व एकरूपता है और प्रत्येक मनुष्य अपने आप में अनूठा है, अद्वितीय है; बस इसे पहचानना और इसका आनन्द लेना ही आध्यात्मिकता का सार है …।
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