न्यूज़ डेस्क : उनकी सरकार रणनीतिक क्षेत्रों में कुछ सार्वजनिक उपक्रमों को छोड़कर बाकी क्षेत्रों में सरकारी इकाइयों का निजीकरण करने को प्रतिबद्ध है। इस समय केंद्र सरकार विनिवेश पर ज्यादा ध्यान दे रही है। सरकारी बैंकों में हिस्सेदारी बेचकर सरकार राजस्व को बढ़ाना चाहती है।
वर्ष 1991-92 में सरकार ने विनिवेश द्वारा 2500 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा था। सरकार उस लक्ष्य से 3040 करोड़ अधिक जुटा पाने में सफल रही।
वर्ष 2013-14 में लक्ष्य तो लगभग 56,000 करोड़ के विनिवेश का था, पर उपलब्धि लगभग 26,000 करोड़ की रही। सरकार साल 2017-18 में एक लाख करोड़ तो इसके एक साल बाद 80,000 करोड़ के लक्ष्य की तुलना में 85,000 करोड़ जुटाने में कामयाब रही थी।
सरकार ने 2021-22 में विनिवेश से 1.75 लाख करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा है।
इससे पहले 2019-20 के अंतरिम बजट के दौरान, सरकार ने कहा था कि विनिवेश के जरिए उनका 90 हजार करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य है। बाद में सरकार ने इस लक्ष्य को बढ़ाकर 1.05 लाख करोड़ रुपये कर दिया था।
बीते वित्तीय वर्ष में सरकार का यह अभियान औंधे मुंह गिरा। कोरोना महामारी के कारण सरकार महज 19,499 करोड़ ही जुटा पाई।
सरकार 300 से 23 करना चाहती है सरकारी कंपनियों की संख्या
सरकार ने इस मामले में एक दीर्घकालीन रणनीति तैयार की है। इसके तहत सरकारी क्षेत्र से जुड़ीं कंपनी, पीएसयू और अन्य संस्थानों को दो हिस्से में बांटा गया है। एक हिस्सा वह है जिसमें कंपनियों और पीएसयू का सरकार 51 फीसदी हिस्सा बेच चुकी है। सरकार की योजना अगले तीन सालों में इनका पूर्ण निजीकरण करने का है। सरकार ने फिलहाल कुछ कंपनियों, पीएसयू और संस्थानों को रणनीतिक क्षेत्र में शामिल किया है। इनमें परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष, रक्षा, ट्रांसपोर्ट, ऊर्जा, वित्तीय सेवा जैसे विभाग शामिल हैं। सरकार इस क्षेत्र को निजीकरण और विनिवेश से फिलहाल दूर रखेगी। इसके अलावा सरकारी क्षेत्र की 300 कंपनियां, पीएसयू और सरकारी उपक्रमों में से अधिकतम का पूर्ण निजीकरण या इनका ज्यादा से ज्यादा हिस्सा बेचने का है। सरकार की योजना रणनीतिक क्षेत्र से जुड़ी सरकारी कंपनियों की संख्या तीन साल में 300 से घटाकर 23 करने की है।
इसलिए दिया साफ संदेश
संसद के बजट सत्र के दौरान प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री समेत कई मंत्रियों ने खुलकर विनिवेश और निजीकरण की वकालत की। खुद पीएम ने कहा कि निजी क्षेत्र को साथ लाए बिना अर्थव्यवस्था का कल्याण संभव नहीं है। इससे पहले किसी भी सरकार ने विनिवेश और निजीकरण की इतनी खुली वकालत नहीं की। दरअसल पूरी सरकार विनिवेश और निजीकरण के पक्ष में माहौल बना रही है क्योंकि बीते तीन दशकों में साल 2017-18 और 2018-19 के इतर कभी विनिवेश के माध्यम से धन जुटाने का लक्ष्य हासिल नहीं कर पाई।
इन कंपनियों में हिस्सेदारी बेचेगी सरकार
भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (बीपीसीएल)
एयर इंडिया
शिपिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया
कंटेनर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया
आईडीबीआई बैंक
बीईएमएल
पवन हंस
नीलाचल इस्पात निगम
देश को क्यों पड़ी निजीकरण की जरूरत?
वर्ष 1991 में भारत को विदेशी कर्ज के मामले में संकट का सामना करना पड़ा। सरकार अपने विदेशी कर्ज का भुगतान करने की स्थिति में नहीं थी। पेट्रोल आदि आवश्यक वस्तुओं के आयात के लिए सामान्य रूप से रखा गया विदेशी मुद्रा रिशर्व 15 दिनों के लिए आवश्यक आयात का भुगतान करने योग्य भी नहीं बचा था। इस संकट को आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि ने और भी गहन बना दिया था। इन सभी कारणों से सरकार ने कुछ नई नीतियों को अपनाया और इसने हमारी विकास रण-नीतियों की संपूर्ण दिशा को ही बदल दिया।
इस वित्तीय संकट का वास्तविक स्रोत 1980 के दशक में अर्थव्यवस्था में अकुशल प्रबंधन था। सामान्य प्रशासन चलाने और अपनी विभिन्न नीतियों के क्रियान्वयन के लिए सरकार करों और सार्वजनिक उद्यम आदि के माध्यम से फंड जुटाती है। जब व्यय आय से अधिक हो तो सरकार बैंकों, जनसामान्य तथा अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों से उधार लेने को बाध्य हो जाती है। इस प्रकार वह अपने घाटे का वित्तीय प्रबंध कर लेती है। कच्चे तेल आदि के आयात के लिए हमें डॉलर में भुगतान करना होता है और ये डॉलर हम अपने उत्पादन के निर्यात द्वारा प्राप्त करते हैं।
इस अवधि में सरकार की विकास नीतियों की आवश्यकता रही क्योंकि राजस्व कम होने पर भी बेरोजगारी, गरीबी और जनसंख्या विस्पफोट के कारण सरकार को अपने राजस्व से अधिक खर्च करना पड़ा। यही नहीं, सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों पर होने वाले व्यय के कारण अतिरिक्त राजस्व की प्राप्ति भी नहीं हुई। इन सब कारणों को देखते हुए भारत ने नई आर्थिक नीति की घोषणा की। इस नई आर्थिक नीति में व्यापक आर्थिक सुधारों को सम्मिलित किया गया। इस दृष्टि से सरकार ने अनेक नीतियां प्रारंभ कीं। इनके तीन उपवर्ग हैं- उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण।
वायपेयी के नेतृत्व में इन कंपनियों का हुआ निजीकरण
साल 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में बनाए गए विनिवेश मंत्रालय ने वायपेयी के नेतृत्व में भारत एल्यूमिनियम कंपनी, हिंदुस्तान जिंक, इंडियन पेट्रोकेमिकल्स कॉर्पोरेशन लिमिटेड और विदेश संचार निगम लिमिटेड जैसी सरकारी कंपनियों को बेचा था। समय-समय पर कई अन्य कंपनियों में भी रणनीतिक रूप से विनिवेश किया गया (कुछ का पूर्ण तो कुछ कंपनियों में सरकारों ने एक निश्चित हिस्सेदारी बेची)। इनमें सीएमसी लिमिटेड, होटल कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड, एचटीएल लिमिटेड, आईबीपी कॉर्पोरेशन लिमिटेड, इंडिया टूरिज्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड, लगान जूट मशीनरी कॉर्पोरेशन लिमिटेड, मारुति सुजुकी इंडिया, टाटा कम्युनिकेशन लिमिटेड आदि।
विभिन्न क्षेत्रों में कब मिली निजीकरण की अनुमति?
बैंकिंग क्षेत्र: भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने 1993 में 13 नए घरेलू बैंकों को बैंकिंग गतिविधियां करने की अनुमति दी।
दूरसंचार क्षेत्र: 1991 से पहले तक बीएसएनएल का एकाधिकार था। 1999 में नई टेलीकॉम नीति लागू होने के बाद निजी कंपनियां आईं।
बीमा क्षेत्र: 1956 में लाइफ इंश्योरेंस एक्ट के बाद एक सितंबर 1956 को भारतीय जीवन बीमा निगम की स्थापना हुई थी। 1999 में मल्होत्रा समिति की सिफारिशों के बाद निजी क्षेत्र को अनुमति मिली।
एविएशन क्षेत्र: 1992 में सरकार ने ओपन स्काई नीति बनाई और मोदीलुफ्त, दमनिया एयरवेज, एयर सहारा जैसी कंपनियां आईं।
ब्रॉडकास्ट क्षेत्र: 1991 तक दूरदर्शन ही था। 1992 में पहला निजी चैनल जीटीवी शुरू हुआ। आज देश में 1000 से ज्यादा चैनल हैं।
इस खबर में दिए गए आंकड़े इकोनॉमिक सर्वे, एनसीईआरटी, कंपनी डाटा, सरकारी डाटा, फैक्टली, मीडिया रिपोर्ट्स आदि से लिए गए हैं
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