न्यूज़ डेस्क : पूज्य “सदगुरुदेव” जी ने कहा – देह-देवालय एवं जीवन-सिद्धि का स्वाभाविक स्रोत है ! स्वस्थ्य-निर्भ्रांत, सहज-स्वाभाविक एवं दीर्धकालिक जीवन के लिए आहार-विहार-विचार शुचिता अपेक्षित है। नैसर्गिक जीवन अभ्यास, सद-विचार सम्पन्नता एवं सत्संग आदि उपक्रमों द्वारा इसे दिव्य-आयुष्य सम्पन्न रखना प्रथम धर्म है ..! मनुष्य का जीवन ईश्वर प्राप्ति का साधन है, जो ईश्वर की अमूल्य दुर्लभ धरोहर है।
शरीर नश्वर है, परंतु देह ही जीवन नहीं है। इसके मरने से जीवन समाप्त नहीं हो जाता, बल्कि रूपांतरण हो जाता है। भागवत मनुष्य को मृत्यु के भय से बचाती है। उन्होंने कहा कि जीवन में मृत्यु एक स्वाभाविक घटना है, जो विकास के लिए आवश्यक है। मृत्यु एक शरीर से दूसरे शरीर तक जाने का प्रवेश द्वार है और इस संसार में आने-जाने के लिए जन्म और मृत्यु दो द्वार हैं। श्रीमद् भागवत सांसारिक बंधनों में पड़े हुए मनुष्य को परमात्मा के निकटता का आभास कराकर मनुष्य को भक्ति के उच्च शिखर पर ले जाकर उसका कल्याण कर देती है। पाप कर्मों में संलिप्त मानव जीव भागवत से ईश्वर प्राप्ति की अनुभूति कर लेता है। इसलिए श्रीमद् भागवत ईश्वर प्राप्ति एवं सुख का साधन है। जीवन सिद्धि के लिये एकमात्र सहज साधन है – सत्संग ! सत्पुरुषों की सन्निधि, स्वाध्याय और अखण्ड-प्रचण्ड पुरुषार्थ समस्त इहलौकिक-पारलौकिक अनुकूलताओं के सृजन का स्रोत हैं। अतः सत्संग-स्वाध्याय सर्वथा श्रेयस्कर हैं साधन हैं – ईश्वर को निकट से अनुभूत करने का ..!
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