पूज्य सद्गुरुदेव आशीषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
न्यूज़ डेस्क : पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – सुसंस्कार-संपन्न सेवा-भावना और सर्वतोभावेन समर्पण भारतीय संस्कृति की अनुपम अभिव्यक्ति है। सेवा से अहंकार का क्षरण और अन्तःकरण में दिव्यता का प्रस्फुटन होता है ! जगत् में सर्वत्र जगन्नाथ ही अभिव्यक्त है; अतः प्राणिमात्र के प्रति आदर का भाव रखें और सेवाव्रती बनें ..! प्राणी मात्र के प्रति दया, उदारता और पारमार्थिक प्रवृत्तियाँ ही मानव जीवन की श्रेष्ठता को उजागर कर धन्यता की अनुभूति प्रदान करती हैं। सेवा साधन नहीं अपितु समस्त आध्यात्मिक साधनों की फलश्रुति है।
परम लक्ष्य की प्राप्ति के निमित्त सेवा व्रत कल्याणकारी है। जीवन में संसार के प्रत्येक प्राणी के प्रति दया का भाव रखना चाहिए, क्योंकि दया क्षमा का मूल है। जिसके जीवन में दया का भाव नहीं है वह जीवन में कभी भी धर्म को धारण नहीं कर सकता। दया के भाव होने पर हमारे भाव सहज ही कोमल हो जाते हैं। इसलिए क्षमा भाव को धारण करके जीवन को सफल बनाना चाहिए। प्राणी मात्र के प्रति दया का भाव सिखाता है -धर्म; और यही अहिंसा है। सच्चा आनंद, सच्ची शान्ति केवल सेवा-व्रत में है। यही अधिकार का स्रोत है, यही शक्ति का उद्गम भी है। निस्वार्थ भाव से की गई सेवा ही विशेष फलदायी होती है। निस्वार्थ सेवा ही धर्म है; जहाँ अपनी मुक्ति की अभिलाषा करना भी अनुचित है। मुक्ति केवल उसके लिए है, जो दूसरों के लिए सर्वस्व त्याग देता है, जब तक निस्वार्थ और निष्काम सेवा भाव के साथ हम भक्ति नहीं करेंगे, हमारे कर्मों का फल भी अनुकूल नहीं मिलेगा। इस प्रकार जब हम अध्यात्म के अभाव को दूर कर इंद्रियों पर नियंत्रण रखना सीख लेंगे, तभी हमारा सेवा-धर्म फलीभूत हो सकेगा …।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – “सेवा परमोधर्म: …” यह उक्ति हमारी रगों में दौड़ती है। “नर कर्म करे, तो नारायण हो जाए …”, इससे बड़ा सिद्धांत और क्या हो सकता है? सेवा भाव के कारण ही कई महापुरुषों का नाम इतिहास में अंकित हो चुका है। किसी ने राष्ट्र की सेवा कर अपना परचम लहराया, तो किसी ने मानव जाति, तो कोई पशु-पक्षियों से प्रेम और सेवा कर अपना नाम इतिहास के पन्नों में अंकित कराया। आज के नौनिहालों एवं किशोर युवाओं को उन महापुरूषों के आदर्श को अपनाकर सेवा भाव से जुड़ने की आवश्यकता है। और, इससे स्वयं के साथ-साथ परिवार, समाज एवं राष्ट्र का भी सर्वांगीण विकास निश्चित है। बच्चों के अंदर परोपकार की भावना उत्पन्न होना चाहिए। इससे आपसी प्रेम और भाईचारा मजबूत होता है। समाज के विभाजन व बंटवारे की आशंका कम हो जाती है। आज भी जिन बच्चों के अंदर सेवा का भाव अंकुरित है, उनका संस्कार ही कुछ अलग झलकता है, जो प्रमाणित करता है कि सेवा और संस्कार में अन्योन्याश्रय संबंध है। अतः इससे अपनी परम्पराओं और धरोहरों को भी संरक्षित रखने की भाव जगता है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा- सेवा कोई स्पर्द्धा का विषय नहीं है। किसने अधिक सेवा की यह विचार करना निम्न स्तर की भावना है। सेवा आंकड़ों में गिनने की बात नहीं, अपितु अनुभूति का विषय है। सेवा के विषय में हमें यह समझना होगा कि सेवा कभी भी योजना करके नहीं की जाती है। जब हम समाज की वेदना और पीड़ा को समझ लेते हैं, सेवा कार्य प्रारंभ हो जाते हैं। परिवार के किसी व्यक्ति की दुर्बलता को दूर करने के लिए विज्ञापन नहीं किया जाता है। उसको सक्षम बनाने के प्रयास का प्रचार नहीं किया जाता। समाजरूपी परिवार के दुर्बल वर्गों के लिए भी यही भाव रखना चाहिए। सेवा करते समय यह भाव मन में नहीं आना चाहिए कि हम कोई पुण्य कार्य कर रहे हैं। सेवा पुण्य कार्य नहीं है, अपितु करणीय कार्य है। यह हमारा कर्तत्व है। इसलिए सेवा कार्य करते समय यही विचार करना चाहिए कि हम अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं, कोई विशेष कार्य नहीं कर रहे। सेवा परमो धर्म ही हमारी संस्कृति है।
हमारी भारतीय संस्कृति जैसी सेवा भावना कहीं नहीं है। हमारी संस्कृति मिल-बांटकर खाने की है, त्याग की है। अन्य देशों में मैं ही श्रेष्ठ हूं, मैं ही महान हूं, इसी बात का संघर्ष है। जबकि हम भारतवासियों ने कहा – मैं श्रेष्ठ नहीं हूं, मेरे गुरु श्रेष्ठ हैं, मेरे माता-पिता श्रेष्ठ हैं। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा कि युग-युगांतर से प्रचलित वाणी सेवा परमो धर्म: को आत्मसात कर चरितार्थ करने वालों को ही भविष्य में महामानव की उपाधि मिलती है। निष्काम सेवा लोक-परलोक दोनों में अंग-संग रहती है। राष्ट्र सेवा, माता-पिता सेवा, सभी प्राणियों की सेवा को धर्म समझें। केवल मानवजाति की ही नहीं, बल्कि संसार के सभी जीव-जंतुओं की सेवा आवश्यक है। अतः सेवा के माध्यम से सभी प्राणियों के संरक्षण से ही विश्व में स्थिरता, पर्यावरण संतुलन के साथ-साथ सम्पूर्ण संसार की रक्षा संभव है …।
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