नई दिल्ली। नए साल 2018 की शुरुआत में ही भारत ने अंतरिक्ष में सफलता की पताका लहरा दी है। उड़ान का शतक पूरा करने से पहले भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) ने एक साथ 104 उपग्रह अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करके विश्व इतिहास रचा था। दुनिया के किसी एक अंतरिक्ष अभियान में इससे पूर्व इतने उपग्रह एक साथ कभी नहीं छोड़े गए थे। इसरो ने पीएसएलबी-सी 40 के जरिये काटरेसैट-2 श्रृंखला के उपग्रह का कामयाब प्रक्षेपण किया। इस यान के द्वारा 31 उपग्रह प्रक्षेपित किए गए। यह उच्च कौशल से जुड़ी तकनीक का कमाल था।
इसलिए चीन और पाकिस्तान ने जताई आपत्ति
इन सूक्ष्म एवं अति-सूक्ष्म (नैनो) उपग्रहों में से आधे अमेरिका के थे और बाकी भारत, फिनलैंड, कनाडा, फ्रांस, दक्षिण कोरिया और ब्रिटेन के थे। ये उपग्रह ऐसी तकनीक से भी लैस हैं, जिनसे किसी निर्धारित स्थल की विशेष तस्वीर ली जा सकती है। इसीलिए इन उपग्रहों को लेकर पाकिस्तान और चीन ने आपत्ति जताई है। दरअसल इसी श्रृंखला के उपग्रहों से मिली तस्वीरों की मदद से भारत ने नियंत्रण रेखा पर स्थित पाकिस्तान के कई आतंकी शिविरों को नष्ट करने में सफलता हासिल की है।
सिर्फ कुछ देशों के पास ही है ये तकनीक
बहरहाल प्रक्षेपण तकनीक दुनिया के चंद देशों के पास ही है। सबसे किफायती होने की वजह से इस तकनीक से महरू म दुनिया के देश अमेरिका, रूस, चीन, जापान का रुख करने की बजाय भारत से अंतरिक्ष व्यापार करने लगे हैं। इसरो पर भरोसा करने की दूसरी वजह यह भी है कि उपग्रह यान की दुनिया में केवल यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी को छोड़ कोई दूसरा नहीं है, जो भारत के पीएसएलवी-सी के मुकाबले का हो। दरअसल यह कई टन भार वाले उपग्रह ढोने में सक्षम है। व्यावसायिक उड़ानों को मुंह मांगे दाम मिल रहे हैं। यही वजह है कि अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, कनाडा, फिनलैंड, दक्षिण कोरिया, इजरायल और ब्रिटेन जैसे विकसित देश अपने उपग्रह छोड़ने का अवसर भारत को दे रहे हैं। हमारी उपग्रह प्रक्षेपित करने की दरें अन्य देशों की तुलना में 60 से 65 प्रतिशत सस्ती हैं।
चीन से है टक्कर
इन तमाम विशेषताओं के बावजूद भारत को इस व्यापार में चीन से होड़ करनी पड़ रही है। मौजूदा स्थिति में भारत हर साल 5 उपग्रह अभियानों को मंजिल तक पहुंचाने की क्षमता रखता है, जबकि चीन की क्षमता दो अभियान प्रक्षेपित करने की है। इसके बावजूद इस प्रतिस्पर्धा को अंतिरक्ष व्यापार के जानकार उसी तरह से देख रहे हैं, जिस तरह की होड़ कभी वैज्ञानिक उपलब्धियों को लेकर अमेरिका और सोवियत संघ में हुआ करती थी।
दूसरे देशों के छोटे उपग्रहों को अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित करने की शुरुआत 26 मई 1999 में हुई थी। और जर्मन उपग्रह टब सेट के साथ भारतीय उपग्रह ओशन सेट भी अंतरिक्ष में स्थापित किए थे। इसके बाद पीएसएलवी सी-3 ने 22 अक्टूबर 2001 को उड़ान भरी। इसमें भारत का उपग्रह बर्ड और बेल्जियम के उपग्रह प्रोबा शामिल थे। ये कार्यक्रम परस्पर साझा थे, इसलिए शुल्क नहीं लिया गया। पहली बार 22 अप्रैल 2007 को ध्रुवीय यान पीएसएलवी सी-8 के मार्फत इटली के ‘एंजाइल’ उपग्रह का प्रक्षेपण शुल्क लेकर किया गया। हालांकि इसके साथ भारतीय उपग्रह एएम भी था, इसलिए इसरो ने इस यात्र को संपूर्ण वाणिज्यिक दर्जा नहीं दिया।
दरअसल अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार व्यावसायिक उड़ान उसे ही माना जाता है, जो केवल दूसरे उपग्रहों का प्रक्षेपण करे। इसकी पहली शुरुआत 21 जनवरी 2008 को हुई, जब पीएसएलवी सी-10 ने इजरायल के पोलरिस उपग्रह को अंतरिक्ष की कक्षा में छोड़ा। साथ ही इसरो ने विश्वस्तरीय मानकों के अनुसार उपग्रह प्रक्षेपण मूल्य वसूलना भी शुरू कर दिया। यह कीमत पांच हजार से लेकर 20 हजार डॉलर प्रति किलोग्राम पेलोड (उपग्रह के वजन) के हिसाब से ली जाती है।
भारत कर रहा है पड़ोसी देशों की मदद
सूचना तकनीक का जो भूमंडलीय विस्तार हुआ है, उसका माध्यम अंतरिक्ष में छोड़े उपग्रह ही हैं। टीवी चैनलों पर कार्यक्रमों का प्रसारण भी उपग्रहों के जरिए होता है। इंटरनेट पर वेबसाइट, फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग और व्हाट्सएप की रंगीन दुनिया व संवाद संप्रेशण बनाए रखने की पृष्ठभूमि में यही उपग्रह हैं। मोबाइल और वाई-फाई जैसी संचार सुविधाएं उपग्रह से संचालित होती हैं। अब तो शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, मौसम, आपदा प्रबंधन और प्रतिरक्षा क्षेत्रों में भी उपग्रहों की मदद जरूरी हो गई है। भारत आपदा प्रबंधन में अपनी अंतरिक्ष तकनीक के जरिए पड़ोसी देशों की सहायता पहले से ही कर रहा है। हालांकि यह कूटनीतिक इरादा कितना व्यावहारिक बैठता है और इसके नफा-नुकसान क्या होंगे, यह अभी भविष्य के गर्भ में है, लेकिन इसमें काई संदेह नहीं कि इसरो की अंतरिक्ष में आत्मनिर्भरता बहुआयामी है।
चंद्र और मंगल अभियान इसरो के महत्वाकांक्षी अंतरिक्ष कार्यक्रम का ही हिस्सा है। अब इसरो शुक्र ग्रह पर भी यान उतारने और चंद्रयान-2 मिशन की तैयारी में है। इन सफलताओं के बावजूद चुनौतियां कम नहीं हैं, क्योंकि अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने विपरीत परिस्थितियों और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के बावजूद जो उपलब्धियां हासिल की हैं, वे गर्व करने लायक हैं। गोया, एक समय ऐसा भी था, जब अमेरिका के दबाव में रूस ने क्रायोजेनिक इंजन देने से मना कर दिया था।
दरअसल प्रक्षेपण यान का यही इंजन वह अश्व शक्ति है, जो भारी वजन वाले उपग्रहों को अंतरिक्ष में पहुंचाने का काम करती है। फिर हमारे जीएसएलएसवी मसलन भू-उपग्रह प्रक्षेपण यान की सफलता की निर्भरता भी इसी इंजन से संभव थी। हमारे वैज्ञानिकों ने दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय दिया और स्वदेशी तकनीक के बूते क्रायोजेनिक इंजन विकसित कर लिया। अब इसरो की इस स्वदेशी तकनीक का दुनिया लोहा मान रही है। नई और अहम चुनौतियां रक्षा क्षेत्र में भी हैं। क्योंकि फिलहाल इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने की दिशा में हम मजबूत पहल ही नहीं कर पा रहे हैं। जरूरत के साधारण हथियारों का निर्माण भी हमारे यहां नहीं हो पा रहा है। आधुनिकतम राइफलें भी हम आयात कर रहे हैं। इस बदहाली में हम भरोसेमंद लड़ाकू विमान, टैंक, विमानवाहक पोत और पनडुब्यिों की कल्पना कैसे कर सकते हैं?
News Source :- www.jagran.com
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