पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – आत्म-कल्याण के पथिकों के लिए सांसारिक सुख, सफलता-असफलता, लाभ-हानि, यश-अपयश आदि कारक गौण है। अतः बाह्य कारकों से प्रभावित हुए बिना जीवन-सिद्धि के लिए सतत् रूप से प्रयत्नशील रहें ..! जो शिष्य को आत्म कल्याण और मुक्ति के मार्ग पर ले जाए, वही सच्चा गुरु है। सच्चे गुरु न केवल आत्म-कल्याण का मार्ग बताते है वरन् उस पर चल सकने योग्य साहस, बल और उत्साह भी देते हैं।
मनुष्य-जीवन ऊर्जा का अक्षय भंडार है। मानवी सत्ता विवेक-विचार और आत्म-ऊर्जा द्वारा परम सत्य को उपलब्ध हो सकती है। अपनी दिव्यता, श्रेष्ठता, महनीयता और अतुल सामर्थ को ईश्वरीय प्रसाद मानकर परमात्मा द्वारा प्रदत्त ऊर्जा का सदुपयोग ही परम धर्म है। शारीरिक दृष्टि से मनुष्य कितना ही बली हो जाये, बौद्धिक दृष्टि से वह कितना ही तर्कशील क्यों न हो, धन के भंडार भले ही लगे हों, पर आत्मा-सम्पदा के अभाव में वह मणि-विहीन सर्प की तरह अर्द्ध विकसित कहा जायेगा। आत्म बल की उपलब्धि का एक सुख, संसार के करोड़ों सुखों से भी बढ़कर होता है। आत्मिक सम्पदाओं वाले नेतृत्व करते हैं, जन मार्गदर्शन करते हैं। निर्धन-फकीर होने पर भी बड़े-बड़े महलों वाले उनके चरणों में गिरकर दया की भीख माँगते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य की महानता वाह्य नहीं आन्तरिक है। उसकी शक्ति गुण-विकास पर छिपी है। आन्तरिक श्रेष्ठता के आधार पर ही उसकी श्रेष्ठता प्रमाणित होती है। भौतिक सम्पदायें तुच्छ हैं, थोड़े समय महानता या बड़प्पन जताकर यह नष्ट हो जाती हैं।
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मनुष्य-शरीर जैसा अलभ्य अवसर पाकर भी यदि उसका उद्देश्य नहीं जाना गया तो क्या मनुष्य का शरीर; क्या पशु का शरीर? आत्म-कल्याण की साधना जो इस जीवन में नहीं कर लेता उसके लिये इस सुर-दुर्लभ अवसर का कुछ भी उपयोग नहीं। श्रीमद्भागवत में बताया है – “यः प्राप्य मानुषं देहं मुक्ति द्वारमपावृतम्। गृहेषु खगवत् सक्तस्तमारुढच्युतं विदुः …”॥ अर्थात् — “मोक्ष के खुले द्वार रूप मनुष्य शरीर को पाकर भी जो पक्षियों की तरह अज्ञान के घेरे में कैद है, उसे लक्ष्य से निरस्त ही समझना चाहिये”। थोड़ा बाहर आकर देखिये, यह संसार कितना विस्तृत है, कितना विशाल है? रात्रि के खुले आसमान के नीचे खड़े होकर थोड़ा चारों ओर दृष्टि तो दौड़ाइये, कितने ग्रह-नक्षत्र बिखरे पड़े हैं? कितना बड़ा फैलाव है इस संसार का? पर इन सब बातों पर विचार करने का समय तभी मिलेगा जब भोगोन्मुख वृत्ति से चित्त हटा कर इन अपार्थिव विषयों की ओर भी थोड़ी दृष्टि जमायेंगे। कामनायें ही हैं, जो हमारी राह रोके खड़ी हैं। स्वार्थ ही है – जो आत्म-विकास के मार्ग पर आड़े अड़ा खड़ा है। अतः ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ मोह को जो अपने पास फटकने नहीं देता है वही महानता की ओर अग्रसर हो पाता है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – उदार बनें, साहस पैदा करें और आध्यात्मिक जीवन की कठिनाइयों को झेलने के लिये उठकर खड़े हो जायँ, फिर देखें कि जिस महानता की, उपलब्धि के लिए हम निरन्तर लालायित रहते हैं, वह सच्चे स्वरूप में मिलती है या नहीं। सत्य हमारे अन्दर छुपा है। उसे धर्म के द्वारा जागृत करें। शक्ति आपके भीतर सोई पड़ी है, उसे साधना से जगाइये। जीवन की सार्थकता का यही एक मात्र मार्ग है। जिसे धारण करने से भय-रहित शान्ति मिले, वही धर्म है, वही लक्ष्य है। दूसरों के अधिकार हमारे द्वारा सुरक्षित रहें। स्वयं अधिकार की लोलुपता से मुक्त रहें। अपना कल्याण तृष्णा-रहित वासना-रहित एवं निष्काम होने में है। बन्धन में तो कामनायें ही बाँधती हैं। इसी से भूल होती है। इसी से अवनति होती है। इसी से मनुष्य सब प्रकार से दीन-हीन होकर कष्ट और क्लेश का झंझटों भरा जीवन बिताता रहता है।
सुख और शान्ति भोग विलास में नहीं, अपितु मनुष्य की सच्चरित्रता, ईमानदारी और पवित्रता में है। सद्गुणों में ही मनुष्य का वैभव छिपा हुआ है, जिसे प्राप्त कर जीवन के सभी अभाव दूर हो जाते हैं। जीवन-लक्ष्य के प्रति मनुष्य की दृढ़ता प्रबल होनी चाहिये। उसे विचार और विवेक के द्वारा सुदृढ़ बना कर अपने जीवन में गहराई तक ढालना पड़ेगा, तभी जीवन लक्ष्य की प्राप्त कर सकने वाली सफलता प्राप्त की जा सकेगी। यह संसार और यहाँ की परिस्थितियों पर जितना अधिक विचार करेंगे उतना ही विवेक बढ़ेगा, समझ आयेगी और आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा। जब मनुष्य वस्तु स्थिति को समझ लेता है तो उसे मानने और अपनाने में भी कोई दिक्कत नहीं होती। परन्तु, जीवन-लक्ष्य की दृढ़ता और आत्म-विश्लेषण का विवेक इतना परिमार्जित होना चाहिये कि साँसारिक बाधाओं का, भोगों के प्रलोभनों का उस पर प्रभाव न पड़ सके।
तभी स्थिरता-पूर्वक उस महानता की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है, जिसके लिये मनुष्य योनि में जीवात्मा का अवतार होता है। अतः आत्म-कल्याण का मार्ग ही सर्वश्रेष्ठ है। आत्म-कल्याण के मार्ग पर चलने वाले को आत्म-निरीक्षण की प्रवृत्ति अत्यावश्यक है। इसका आशय यह है कि हमको विवेक के प्रकाश में अपने दोषों पर विचार करना और उनको दूर करने का प्रयत्न निरंतर करते रहना चाहिए; इसी में जीवन की सार्थकता निहित है …।
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