पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य सद्गुरूदेव जी ने कहा – संन्यास परंपरा के आदर्श, भारत माँ के परम आराधक, भारतमाता मंदिर (हरिद्वार) एवं समन्वय सेवा ट्रस्ट के संस्थापक परम पूजनीय पद्मभूषण से अलंकृत जगद्गुरु निवृत्त “शंकराचार्य” पूज्य गुरुदेव स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि जी महाराज महासमाधि द्वारा पञ्च भौतिक शरीर त्यागकर आत्म-स्वरूपस्थ – ब्रह्मलीन हो गये हैं। पूज्य गुरुदेव जी का आकस्मात् स्वर्गलोक जाना अपूरणीय क्षति है। वे आध्यात्मिक जगत में एक दैदीप्यमान सूर्य की तरह थे। उनका हमारे बीच में स्थूल रूप से ना होना एक दिव्य युग का अंत है ! आज आध्यत्मिक जगत के दैदीप्यमान सूर्य का अवसान हो गया है। अध्यात्म और समाज कल्याण के क्षेत्र में पूज्य गुरुदेव ने अमूल्य योगदान दिया है। उनके असंख्य श्रद्धालुओं के प्रति मैं शोक-संवेदना व्यक्त करता हूँ ..!
देह मरणधर्मा है, ईश्वरीय दिव्य सत्ता अपनी देह सत्ता को समेटकर पूर्णता की ओर, ब्रह्मांड में अपने स्वरूप की दिव्यता, ओज, आध्यात्मिक ऊर्जा का विस्तार करने हेतु स्थापित हो गई। दिव्य ईश्वरीय सत्ता को भौतिक देह स्वरूप में कहाँ बांधा जा सकता है, उन्हें तो अपने विराट स्वरूप में आना ही है। उनकी अद्भुत आध्यात्मिक ईश्वरीय ऊर्जा को हम हर-पल, हर-सॉस में अनुभूत करते हैं …।
वर्तमान में भय, शोक, अशान्ति, असुरक्षा, अनीति, दमन, अत्याचार, शोषण और कदाचित् एक शब्द गढ़ा गया है “भोगवाद” या कि “आतंकवाद” ! ऐसा ये युग हो सकता है जिसमें बहुत सी कठिनाइयां, बहुत सी समस्याएं हों, पर एक सच यह भी है कि कभी समाधान की दिशा में कहीं प्रयत्न होंगे तो वो समाधान की दिशा है – “समन्वय, प्रेम और भाई-चारा”। लगभग 6 दशक पूर्व हमारे पूज्य गुरुदेव जी ने सारे संसार में जिस समन्वय की भावना को लेकर जो “अलख” जगाया, उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। “राष्ट्र आराधना”और “सामाजिक समता” के विषय में विचार भी नहीं किया जा रहा था, उस समय “हरिजन बस्तियों” में जाकर उन्हें अपनाया जाए, यह कल्पना भी असंभव थी। गिरि-कंदराओं, हिमउपत्यकाओं में जाकर जो शोषित, दलित, पीड़ित, प्रताड़ित और उपेक्षित हैं अथवा जिनके पास भांति-भांति की पीड़ाएं हैं; जिनके साथ सहकार करने के लिए कोई भी तैयार नहीं था। तब 60 वर्ष पूर्व हमारे पूज्य गुरुदेवजी जी ने “समन्वय मंत्र” जो “उपनिषदों” में वर्णित है, जो “ब्रह्मसूत्र की आत्मा” है, उसे लेकर कार्य किया – “तन्मेमना शिव संकल्पमस्तु ..”!
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पूज्य आचार्यश्री जी ने कहा कि हमारे पूज्य गुरुदेव “संकल्पसिद्ध पुरुष थे ..”। उनके द्वारा बड़े-बड़े कार्य हुए हैं। जब उनके भीतर कोई संकल्प जगता है तो पूज्य गुरुदेव का ऐसा विश्वास है और कई बार उन्होंने अनुभव किया है कि “ये संकल्प उनका संकल्प तो होता है, पर वो संकल्प ईश्वरीय अथवा भगवदीय संकल्प होता है। वे बड़े ही निश्छल, सरलमना थे। चाहे वे पिछले कुछ दिनों की घटना रही हो, पिछले कुछ महीनों की परिस्थितियां रही हों अथवा कई दशकों के अनेक अनुष्ठान और राष्ट्र पर आये अनेक संकट ही क्यों न रहे हों, पूज्य गुरुदेव जी कोई समीकरण नहीं देखते, परात्पर कोई विचार नहीं करते, अपितु तात्कालिक परिस्थितियों में समाधान के लिए स्वयं को प्रस्तुत कर देते थे। पूज्य गुरुदेव जी के पास चिंतन एवं चरित्र की उच्चता, आचरण की धवलता, नेतृत्व-कौशल, ये सब तो था ही, पर उनके पास विद्या-विभूति, मनीषा पाण्डित्य था, जिसने पूरे राष्ट्र को लाभान्वित किया है।
पूज्य गुरुदेव जी की मनीषा “चाणक्य” जैसी थी; विश्वामित्र, पुलह, पुलस्त्य, कपिल, कणाद, जेमिनी, पाराशर जैसी थी। वह मनीषा “पतंजलि” और “व्यास” की मनीषा थी। जहां वैचारिक पवित्रता, भाव-शुचिता, संकल्प की सिद्धि एवं सैद्धांतिक मान्यताएं पूज्य गुरुदेव जी के आसपास देखने को मिलती थी। आज के युग में “संन्यास” का कहीं आदर्श अगर ढूंढा जाए तो वह पूज्य गुरुदेव जी के पूरे जीवन में देखने को मिलता है। ऐसे गुरु नहीं मिलेंगे जो बार-बार कहते हों – “मैं तो वाक्य सेवा कर रहा हूं। मैं तो पुष्प चढ़ा रहा हूं। ये मेरी “वैखरी” अथवा प्रवचन प्रताप है।” उनकी जो शब्दनिष्ठा है, या “आखर” उनके कण्ठ से निकलकर दूसरों के अज्ञान का हरण करते हैं, उनके आखर पुष्प थे। उनके शब्द समाधान कारक थे। ये भी एक प्रकार से सेवा-सपर्या ही थी।
पूज्य आचार्यश्री जी ने कहा – भारत माता के लिए, राष्ट्र के लिए उनके भीतर से उदारता, आत्मीयता, सहृदयता, करूणा, पवित्रता आदि की शुभ-कल्याणकारी धाराएं निरन्तर प्रवाहित होती रहती थी। उन्होंने हमेशा एक निवेदित परिव्राजक के रुप में भारतीय संस्कृति का प्रचार प्रसार किया। पूज्य गुरुदेव जी द्वारा स्थापित “भारतमाता मंदिर” एवं समन्वय सेवा ट्रस्ट की ओर से “निःशुल्क अन्नक्षेत्र”, चल-चिकित्सालय, फिजियोथेरापी सेंटर, गौशाला, छात्रावास, हरिजन आदिवासी एवं वनवासी सेवा पुस्तकालय एवं वाचनालय, प्रतिवर्ष समन्वय पुरस्कार, प्रकाशन तथा वृद्धाश्रम आदि अनेक सेवा संस्थाएं चल रही हैं।
पूज्य गुरुदेव जी भारतीय संस्कृति के ऐसे शिखर पुरुष थे जिनमें भारत का प्राचीन गौरव, वैदिक महर्षियों की दिव्य वाणी तथा आधुनिक युग के निर्माता “स्वामी विवेकानंद” एवं स्वामी रामतीर्थ का समन्वित व्यक्तित्व अनुस्यूत है। अंतर्नुभूति के आधार पर पूज्य गुरुदेवजी कहते थे – “प्रवचन मेरा व्यवसाय नहीं है। प्रवचन के समय मैं, आप सबके भीतर बैठे नारायण के दर्शन करता हूं …”।
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