पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – ईश-विधान सर्वथा हितकर-निर्दोष और उद्धारक है; नियंता नियति और ईश्वरीय व्यवस्था प्रत्येक प्राणी के कल्याण के निमित्त सृष्टि संचालन कर रही है…! गीता का उद्देश्य ही परमात्मा, आत्मा और सृष्टि विधान के ज्ञान को स्पष्ट करना है। प्रत्येक कर्म का कोई अधिष्ठाता जरूर होता है। परिवार के वयोवृद्ध मुखिया के हाथ सारी गृहस्थी का नियन्त्रण होता है, मिलों-कारखानों की देख-रेख के लिए मैनेजर होते हैं, राज्यपाल-प्रान्त के शासन की बागडोर सँभालते हैं, राष्ट्रपति सम्पूर्ण राष्ट्र का स्वामी होता है। जिसके हाथ में जैसी विधि-व्यवस्था होती है, उसी के अनुरूप उसे अधिकार भी मिले होते हैं। अपराधियों को दण्ड व्यवस्था, सम्पूर्ण प्रजा के पालन-पोषण और न्याय के लिये उन्हें उसी अनुपात से वैधानिक या सैद्धान्तिक अधिकार प्राप्त होते हैं। अधिकार न दिये जायें तो लोग स्वेच्छाचारिता, छल-कपट और निर्दयता का व्यवहार करने लगें। न्याय व्यवस्था के लिये शक्ति और सत्तावान होना उपयोगी ही नहीं अतिआवश्यक भी है। मनुष्य का विधान तो देश, काल और परिस्थितियों केअनुसार तो बदलता ही रहता है। किन्तु, उस परम सत्ता का विधान सदैव एक जैसा कल्याणकारी ही है। जैसा कर्मबीज, वैसा ही फल; यह उसका निश्चल विधान है….।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – इतना बड़ा संसार एक निश्चित व्यवस्था पर सुव्यवस्थित चल रहा है। सूरज प्रतिदिन ठीक समय से निकल आता है, चन्द्रमा की क्या हैसियत जो अपनी महीने भर की ड्यूटी में रत्ती भर भी फर्क डाल दे, ऋतुएँ अपने समय पर आती हैं और लौट जाती हैं, आम का बौर बसन्त में ही आता है, टेसू गर्मी में ही फूलते हैं, वर्षा तभी होती है जब समुद्र से मानसून बनता है। अर्थात्, सारी प्रकृति, सम्पूर्ण संसार ठीक व्यवस्था से चल रहा है। इतने बड़े संसार का नियामक परमात्मा सचमुच बड़ा ही शक्तिशाली है। सत्तावान न होता तो कौन उसकी बात सुनता? दण्ड देने में उसने चूक की होती तो अनियमितता, अस्त-व्यस्तता और अव्यवस्था ही रही होती। उसकी सृष्टि से कोई भी छुपकर पाप और अत्याचार नहीं कर सकता। इसलिये वेद ने आग्रह किया है – यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः। यस्येमाः प्रदिशो यस्य बाहु कस्मैदेवाय हविषा विधेम …। अर्थात्, हे मानव ! बर्फ से आच्छादित पहाड़, नदियाँ, समुद्र जिसकी महिमा का गुणगान करते हैं, दिशायें जिसकी भुजायें हैं, हम उस विराट् विश्व पुरुष परम पिता परमात्मा को कभी न भूलें। गीता के ‘‘येन सर्वविदं ततम्…’’ अर्थात् ‘‘यह जो कुछ भी है परमात्मा से ही व्याप्त है…’’ की विशद व्याख्या करते हुये योगीराज “अरविन्द” ने लिखा है – ‘‘यह सम्पूर्ण संसार परमात्मा की ही सावरण अभिव्यंजना है। जीव की पूर्णता या मुक्ति और कुछ नहीं भगवान् के साथ चेतना, ज्ञान, इच्छा, प्रेम और आध्यात्मिक सुख में एकता प्राप्त करना तथा भगवती शक्ति के कार्य सम्पादन में अज्ञान, पाप आदि से मुक्त होकर सहयोग देना है…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि जो विश्व-कल्याण की कामना में ही अपना कल्याण मानते हैं और तदनुसार आचरण करते हैं, ईश्वर के अनुदान उन्हें उसी तरह प्राप्त होते हैं जैसे कोई पिता अपने सदाचारी, गुणी, आज्ञा पालक और सेवा भावी पुत्र को ही अपनी सुख-सुविधाओं का अधिकांश भाग सौंपता है। संसार की इस लम्बी जीवन-यात्रा को एकाकी पूरा करने के लिए चल पड़ना निरापद नहीं है। इसमें आपत्तियाँ आयेंगी, संकटों का सामना करना होगा। निराशा और निरुत्साह से टक्कर लेनी होगी। और, इन सभी बाधाओं और दुःखदायी परिस्थितियों से लड़ने के लिए एक विश्वस्त साथी का होना बहुत आवश्यक है। और, वह साथी ईश्वर से अच्छा और कोई हो नहीं सकता। उसे कहीं से लाने-बुलाने की आवश्यकता नहीं होती है। वह तो हर समय, हर स्थान पर विद्यमान है। एक अणु भी उससे रहित नहीं है। वह हमारे भीतर ही बैठा हुआ है। किन्तु, हम अपने अहंकार के कारण उसे जान नहीं पाते। ईश्वर हमारा महान उपकारी पिता है। वह हमारा स्वामी और सखा भी है। हमें उसके प्रति सदा आस्थावान रहना चाहिये और आभारपूर्वक उसके उपकारों को याद करते हुए उसके प्रति विनम्र एवं श्रद्धालु बने रहना चाहिये। इसमें हमारा न केवल सुख निहित है, बल्कि लोक-परलोक दोनों का भी कल्याण है। वह करुणा सागर है, दया का आगार है। जिसने ईश्वर से मित्रता कर ली है, उसे अपना साथी बना लिया है, उसके लिये यह संसार बैकुण्ठ की तरह आनन्द का आगार बन जाता है। जिसकी यह सारी दुनिया है, जो संसार का स्वामी है, उससे संपर्क कर लेने पर, साथ पकड़ लेने पर, फिर ऐसी कौन-सी सम्पदा, फिर ऐसा कौन-सा सुख शेष रह सकता है, जिसमें भाग न मिले। जो स्वामी का सखा है वह उसके ऐश्वर्यों का भी भागी हो जाता है…।
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