जीवन रचना में विचारों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है : स्वामी अवधेशानन्दं जी महाराज

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
            ।। श्री: कृपा ।।
🌿
 पूज्य “सदगुरुदेव” जी ने कहा – आत्मवत् सर्वभूतेषु का भाव चिरकाल से ही भारतीय संस्कृति-जीवन मूल्यों का अभिन्न अंग रहा है। इसलिए हमारी प्रार्थनाओं में वैश्विक शान्ति के साथ-साथ सम्पूर्ण धरा, अंतरिक्ष एवं ब्रह्याण्ड के प्रत्येक अवयवों में शान्ति और समन्वय के स्वर समाहित हैं ..! परमार्थ और सबका कल्याण भारतीय संस्कृति के मूल में है। हमारी भारतीय संस्कृति में लोक-कल्याण और लोक हित की भावना सर्वोपरि है। दूसरों के कल्याण और आनंद में स्वयं के सुख की अनुभूति होती है। सबका हित हमारी संस्कृति का मूल आधार है। वेद भी कहते हैं “सब सुखी हों, सब निरोगी हो और किसी को भी दु:ख न हो”। जब तक समाज में यह पवित्र भावना नहीं जागती तब तक सामाजिक समरसता का निर्माण नहीं होता। भारतीय संस्कृति में समन्वय का तत्व आदिकाल से विद्यमान है। भारतीय संस्कृति सबको साथ लेकर चलती है। सबकी चिंता और सबके कल्याण की कामना करती है। हम जो शांति पाठ करते हैं, उसमें प्रकृति के सभी अवयवों की शांति की प्रार्थना भी सम्मिलित है। इस प्रकार हमारी यह संस्कृति ही हमें सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बनाती है …।
🌿 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – संस्कृति आभ्यंतर है, इसमें परंपरागत चिंतन, कलात्मक अनुभूति, विस्तृत ज्ञान एवं धार्मिक आस्था का समावेश होता है। संस्कृति जीवन की विधि है। संस्कृति हमारे जीने और सोचने की विधि में हमारी अंत:स्थ प्रकृति की अभिव्यक्ति है। भारतीय नागरिकों की सुंदरता उनकी संवेदनशीलता, सहनशीलता, उन संस्‍कृतियों के मिश्रण में निहित है जिसकी तुलना एक ऐसे उद्यान से की जा सकती है जहां कई रंगों और वर्णों के फूल है, जबकि उनका अपना अस्तित्‍व बना हुआ है और वे भारत रूपी उद्यान में भाईचारा और सुंदरता बिखेरते हैं। संस्कृति उन भूषणरूपी सम्यक् चेष्टाओं का नाम है जिनके द्वारा मानव समूह अपने आंतरिक और बाह्य जीवन को, अपनी शारीरिक व मानसिक शक्तियों को संस्कारवान, विकसित और सुदृढ़ बनाता है। संक्षेप में, संस्कृति मानव समुदाय के जीवन-यापन की वह परंपरागत किंतु निरंतर विकासोन्मुखी शैली है, जिसका प्रशिक्षण पाकर मनुष्य संस्कारित, सुघड़, प्रौढ़ और विकसित बनता है …।
🌿 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – संस्कृति और धर्म में बहुत अंतर है। धर्म व्यक्तिगत होता है। धर्म आत्मा-परमात्मा के संबंध की वस्तु है। जबकि संस्कृति समाज की वस्तु होने के कारण आपस में व्यवहार की वस्तु है। संस्कृति धर्म से प्रेरणा लेती है और उसे प्रभावित करती है। धर्म को यदि ‘सरोवर’ तथा संस्कृति को ‘कमल’ की उपमा दें तो यह गलत न होगा। संस्कृति ही किसी राष्ट्र या समाज की अमूल्य संपत्ति होती है। युग-युगांतर के अनवरत् अध्यवसाय, प्रयोग, अनुभवों का खजाना है – संस्कृति। भारतीय संस्कृति व्यक्ति, समाज व राष्ट्र के जीवन का सिंचन कर उसे पल्लवित-पुष्पित तथा फलयुक्त बनाने वाली अमृत स्रोतस्विनी चिरप्रवाहिता सरिता है। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। ऐसा माना जाता है कि भारतीय संस्कृति यूनान, रोम, मिस्र, सुमेर और चीन की संस्कृतियों से भी प्राचीन है। अतः विश्व के कई विद्वान तो भारतीय संस्कृति को ही विश्व की सर्वाधिक प्राचीन संस्कृति मानते हैं …।
      
 
 
 

Comments are closed.