पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – साधना व्यक्तित्व के शोधन, उच्चतम नैतिक मानकों के संस्थापन एवं आत्मानुसंधान की श्रेष्ठतम् वैज्ञानिक विधा का नाम है। सेवा, जप, तप, व्रत और दान आदि विविध परमार्थिक उपक्रम आत्म-अवबोध और उच्चतम जीवन मूल्यों के सृजन में सहायक हैं। अतः जीवन की सिद्धि के लिए साधना का सातत्य बना रहे ..! परमार्थ साधना द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त करना यह मानवी जीवन का परम ध्येय है। सेवा के बिना, साधना और संस्कार के बिना शिक्षा अधूरी रहती है। सेवा को हर व्यक्ति को अपने दिनचर्या का हिस्सा बनाना चाहिए। सेवा ही आत्म संतुष्टि का अनुभव कराती है। प्रेम, करुणा व उपासना का संगम है – साधना। साधक अपने जीवन में संसारी बाधक तत्वों को हटाकर जितना साधना में लगता है, उतना ही आत्म-कल्याण के मार्ग की ओर अग्रसर होता है। चारों तरफ सुविधाओं का जाल बिछा है। साधक यदि चंचल मन पर नियंत्रण नहीं रख पाता तो उस जाल में फंस जाएगा और बाधक तत्व उसे साधना के पथ पर आगे नहीं बढ़ने देंगे …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनुष्य में जितनी प्रकार की शक्तियाँ और प्रवृत्तियाँ हैं वे सब अभ्यास और साधना द्वारा ही रह सकती हैं और बढ़ सकती हैं। चलने की शक्ति चलने से और दौड़ने से बढ़ सकती है। अगर आप किसी बात में उन्नति करना चाहते हैं तो बार-बार उसका अभ्यास करना होगा। यदि सुन्दर अक्षर लिखना चाहते हैं तो बार-बार लिखना होगा। यदि आप एक माह तक पूरी तरह बोलना बंद कर दें तो बाद में आपको बोलने में भी कठिनाई जान पड़ेगी। अगर दस दिनों तक बिस्तर पर पड़े रहकर बाद में एक दिन दूर तक चलने का प्रयत्न करें तो मालूम होगा कि आपके पाँव निर्बल हो गये हैं। साराँश यही है कि यदि आप किसी विषय में दक्षता प्राप्त करना चाहते हैं तो उसे व्यवहार में लाइये और जिस काम से दूर रहना है उसे बिल्कुल बंद करें। उसके बदले में और कुछ करें जिससे उसका विचार भी उत्पन्न न हो …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी के प्रवचनों में परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से उपनिषद् प्रतिपादित तत्व-ज्ञान की ही विवेचना और व्याख्या की गई है। वहीं से इन सूत्रों को चुनकर यहां आपके लिए प्रस्तुत किया जा रहा है। याद कीजिए, भगवान श्रीकृष्ण के इन शब्दों को, जिनमें वे कहते हैं – “नासतो विद्यते भावो-नाभावो विद्यते सत: …”। अर्थात्, असत् कभी सत् नहीं हो सकता और सत् का कभी अभाव नहीं होता। वेदांत की इस संदर्भ में स्पष्ट धारणा है कि जीवन में कुछ प्राप्त नहीं करना है, जानना है बस। हैंड पंप जब सूख जाता है, तो वह पानी नहीं देता। तब पानी बाहर से डालना पड़ता है। बाहर से डाला गया जल भीतर के जल को बाहर ले आता है। यही भूमिका साधक के जीवन में शास्त्रीय या कि शब्द-ज्ञान की है। शब्दों की उपयोगिता को नकारना या कि नएपन की खोज नासमझी है। हमेशा ध्यान रखिएगा, दीपक के साथ जब दूसरा दीपक जुड़ता है, तो वह प्रकाशवान हो जाता है, यही आत्मज्ञानी के संग का लाभ है। परन्तु, इस बात का ध्यान रहे कि दूसरा दीपक पहले दीपक की ऊष्मा और प्रकाश को आत्मसात् करने के लिए पूरी तरह से तैयार होना चाहिए। इस प्रकार आपका जीवन भी ज्ञान की परम आभा से प्रकाशित हो, यही प्रार्थना है – प्रभु जी के श्रीचरणों में …।
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