पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
          ।। श्री: कृपा ।।
🌿 पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – मानवी चेतना उत्कर्ष-उन्नयन और समग्र कल्याण के लिये अन्त:करण की पवित्रता, पुरुषार्थ और आध्यात्मिक-उद्योग आरम्भिक साधन हैं; जो भगवद-कृपा से ही विकसित होते हैं। अतः जीवन सिद्धि के लिये ईश-कृपा और देव-अनुग्रह मूल साधन हैं…! भगवदकृपा-अनुभव अंतहीन सामर्थ्य, अनन्त शक्ति और अपार ऊर्जा का अनुभव है। धर्म वह जो प्रभु की भक्ति करा दें, भक्ति भी ऐसी जो निस्‍वार्थ हो, नित्‍य निरंतर हो । ऐसी भक्ति का फल क्‍या है – आनंदस्‍वरूप प्रभु का हृदयपटल पर साक्षात अनुभव एवं प्रभु का साक्षात दर्शन कराकर मानव जीवन को कृतकृत्‍य कर देना। प्रभु साक्षात्‍कार द्वारा जीव और “शिव” का मिलना मानव जीवन की सच्‍ची पराकाष्‍ठा है…। हमने मानव जीवन में कितना धन कमाया, कितनी प्रतिष्‍ठा कमाई – यह मानव जीवन को आंकने का बहुत गौण और बहुत ही बौना मापदण्‍ड है, जो कलियुग में प्रचलित है। इसका समर्थन कहीं भी अध्‍यात्‍म में नहीं मिलेगा। हम संसार सागर में डुबे हुये हैं और मानव जीवन के उद्देश्य से विमुख होने के कारण दीन अवस्था में हैं। धन, संपत्ति से हम कितने भी लदे हुये हो फिर भी जीवन उद्देश्य को भुलने के कारण हम दीन हैं।मनुष्‍यों के लिए सर्वश्रेष्‍ठ धर्म वही है, जिससे परम पिता परमात्मा में भक्ति हो और भक्ति भी ऐसी, जिसमें किसी भी प्रकार की कामना न हो। और, जो नित्‍य-निरंतर बनी रहे; ऐसी भक्ति से हृदय आनन्‍दस्‍वरूप परमात्‍मा की उपलब्धि करके कृतकृत्‍य हो जाता है। प्रभु की कृपा, प्रभु की दया के बिना जीव का संसार सागर और कर्ममोह से छुट पाना पूर्णतः असंभव है। अतः प्रभु भक्ति के बल पर, प्रभु की कृपा एवं उनकी दया को जीवन में अर्जित करना चाहिए, तभी हमारी मानव जीवन की सफलता और जीवन पश्चात उद्धार हो सकता है…।
🌿 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – भगवान की भक्ति हमें सच्‍चा वैष्‍णव बना देती है। हमारे भीतर वैष्‍णव गुण भर देती है। यही वैष्‍णव गुण प्रभु को अत्‍यन्‍त प्रिय होते हैं। संत श्रीनरसी मेहता जी ने वैष्‍णवों का सबसे श्रेष्‍ठ चित्रण अपने अमर भजन “वैष्‍णव जन तो तेने कहिये, जो पीर पराई जाने रे …” में किया है। जो एक सच्‍चे वैष्‍णव थे, उनका यह अति प्रिय भजन है। पूज्य आचार्यश्री जी ने वैष्‍णव गुणों को वर्णित करते हुए कहा कि वैष्णव वह है, जो अभिमान रहित होकर परोपकार करे, दुसरों के दुःख को जाने, दुःखी का उपकार करे। ऐसा करने पर भी मन में अभिमान का भाव नहीं लाये, जो सकल लोक में किसी की भी निन्दा न करे, जो अपने वचन और कर्म को निश्‍छल रखे, जो हर जीव और प्राणी को समदृष्टि भाव से देखे, जो मन से तृष्णा व कामना का त्याग करे, जो माता के भाव से परस्त्री को देखे, जो थकी जिह्‌वा से भी असत्य नहीं बोले, जो मोह और माया में अपने मन को नहीं व्यापने दे, जो दृढ वैराग्य अपने मन में रखे, जो सिर्फ और सिर्फ भगवन्नाम की ताली बजाये, जो मन को लोभ और कपट से रहित रखे, जो मन को काम और क्रोध से निवृत्‍त रखे आदि। उपरोक्त आचरण रखने वाला भक्त – ऐसा पवित्र हो जाता है जैसे सकल तीर्थ उसके तन में आ बसे हों, कुटुम्ब में ऐसा एक भी प्राणी उस कुटुम्ब का पीढ़ियों सहित उद्धार कर देता है, ऐसे आचरण युक्त वैष्णव अपने जन्म देने वाली जननी के कोख को धन्य कर देता है। अतः भक्ति में इतनी प्रबल और प्रगाढ़ शक्ति होती है कि हमारे भीतर ऐसे स्वर्णिम वैष्‍णव गुण विकसित कर देती है, जो प्रभु को अति प्रिय होते हैं…।
🌿 पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति होते ही, अनन्‍य प्रेम से उनमें चित्त जोड़ते ही निष्‍काम ज्ञान और वैराग्‍य का आविर्भाव हो जाता है। जिससे ज्ञान और वैराग्‍य का अंकूर हमारे भीतर फूट जाता है। और, ऐसा होना स्‍वभाविक ही है, क्‍योंकि प्रभु ने देवी “भक्ति” को “ज्ञान और वैराग्‍य” पुत्र रूप में दिये हैं। इसलिए माता भक्ति जब आती हैं तो अपने पुत्रों “ज्ञान और वैराग्‍य” को साथ लाती हैं। श्रीमद् भगवद अत्‍यन्‍त गोपनीय, रहस्‍यात्‍मक पुराण है । यह भगवत्‍स्‍वरूप का अनुभव करानेवाला और समस्‍त वेदों का सार है। संसार में फंसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्‍धकार से पार जाना चाहते हैं, उनके लिए आध्यात्मिक तत्‍वों को प्रकाशित करानेवाला यह एक अद्वितीय दीपक है। यह श्रीग्रंथ, एक सिंह की तरह सिंहनाद कर रहा है। जैसे शेर के सिंहनाद से भेड, बकरी एवं अन्‍य जीव भाग खड़े होते हैं, ठीक वैसे ही श्रीमद् भागवत जी के सिंहनाद से दरिद्रता, दुःख, मोह -माया आदि भाग जाते हैं। हमें आवश्यकता है तो मात्र श्रीमद् भागवतजी के शरण में जाने की। इस श्रीग्रंथ में वह भव्‍यता और सामर्थ्‍य है कि हमारे भीतर की भक्ति को प्रबल कर प्रभु से मिलने का द्वार खोल देती है। अतः साधक को कथा की गहराई में उतर कर, भाव के दर्शन करने का प्रयास करना चाहिए। प्रभु कथा भक्‍तों को परम रोमांचित करती है, रोम-रोम पुलकित हो जाते हैं, हृदय में आनंद के हिलोरे उठते हैं। रोमांचित करने वाला, पुलकित करने वाला, पवित्र करने वाला, आनंदित करने वाला इससे बड़ा और कोई साधन है ही नहीं। न पूर्व में इससे बड़ा कोई साधन था और भविष्‍य में भी इससे बड़ा कोई साधन होना संभव भी नहीं है, क्‍योंकि प्रभु कथा परमानंद की पराकाष्‍ठा है…।
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