पूज्य सद्गुरुदेव अवधेशानंद जी महाराज आशिषवचनम्

पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
            ।। श्री: कृपा ।।
????  पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – भगवदीय विधान सर्वथा निर्दोष एवं कल्याणकारी है। हानि-लाभ, जय-पराजय, सुख-दुःख, मान-अपमान और द्वन्द सब मन की उपज है…! हम मन की उपज हैं, इसलिए तो मनुष्य हैं। सभी बन्धनों का कारण सिर्फ मन है, जो हमें अपने अनुकूल बनाना चाहता है और हम इसकी अनुकूलता प्राप्त करनेँ के लिए विवेकहीन होते चले जाते हैं। मनुष्य को ऋषि-मुनियों की व अवतारों की इस पावन भूमि पर भोग के स्थान पर योग से जुड़ना चाहिए, भगवद-चिंतन करना चाहिए। प्रभु का स्मरण वह अमृत कलश है, जिससे व्यक्ति में ज्ञान और भक्ति की प्यास और बढ़ जाती है। प्रभु का स्मरण ही एक मात्र प्रकाशपुंज है। प्रभु को स्मरण करने मात्र से ही मानव का मार्गदर्शन स्वत: होने लगता है। भगवान की लीला अलौकिक है। इस पावनधरा के कण-कण में भगवान का आभा-मण्डल विराजमान है। भगवान का अवतरण प्राणीमात्र को कुछ ना कुछ देने के लिए हुआ है। भगवान के शब्दकोष में दु:ख नहीं है। सुख-दु:ख तो मनुष्य के मन की उपज है। व्यक्ति को परमात्मा के नामों में न उलझकर वीतराग आत्मा को नमन करना चाहिए। वह आत्मा किसी भी नाम से पुकारी जा सकती है। तृष्णा के कारण व्यक्ति बड़े लाभों से वंचित रह जाता है। विवेक सम्पन्न व्यक्ति परम को प्राप्त करने के लिए तुच्छ को छोड़ता है; पर, अविवेकी मनुष्य तुच्छ को पाने के लिए परम का त्याग तक कर देता है। परिस्थितिवश छोड़ना बड़ी बात नहीं, जो मिलने पर भी उस वस्तु का त्याग करता है, वह महान बनने की योग्यता अर्जित कर सकता है। भारतीय संस्कृति त्याग प्रधान रही है। उस संस्कृति को हमें भूलना नहीं चाहिए। भगवान ने समस्त प्राणियों में मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ बनाया है, इसलिए हमें अन्य प्राणियों की रक्षा करते हुए श्रेष्ठ जीवन जीना चाहिए। जीवन में सभी से प्रेम करते हुए अपने जीवन को निर्मलता से जीयें, तभी मनुष्य जीवन सार्थक समझा जा सकता है। यदि हम किसी दूसरे का अहित करते हैं तो परमात्मा हमारा हित नहीं कर सकता। जिस प्रकार के कर्म हम करते हैं परमात्मा हमें उसी प्रकार का फल देता है। इसलिए सदैव शुभ-कर्म करने चाहिए, ताकि सद्फलों की प्राप्ति हो सके। अतः मानव जीवन को सफल बनाने के लिए परमात्मा का चिंतन जरूरी है…।
???? पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा- दयाभाव, करूणा, शीतलता व आपसी प्रेमभाव अपनाकर इस संसार से पार उतरा जा सकता है। मनुष्य जीवन बहुत ही कठिन है। परहित करना, सारे संसार के जीवों की रक्षा करना, पर्यावरण रक्षण करना बड़ी बात है। आज का मनुष्य विकास की अंधी दौड़ में बेतहाशा दौड़ रहा है। भगवान के नाम में इतनी शक्ति है कि पानी पर भी पत्थर तैर सकता है। मानव जीवन दुर्लभ और बहुमूल्य है। यह कथन हम सभी ने कई बार पढ़ा-लिखा और सुना है, किन्तु इस दुर्लभ मानव जीवन को प्राप्त करके इसे सार्थक करने के लिए हमारा क्या प्रयास और क्या योजना है? इस पर हमारा चिंतन-मनन परम आवश्यक है। आज व्यक्ति ने अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं को इतना अधिक बढ़ा लिया है कि उसने अपने आपको मात्र पैसा छापने की मशीन बनाकर रख लिया है। सबेरे से शाम तक, आधी रात तक मात्र पैसा, पैसा और बस पैसा ही व्यक्ति के लिए सब कुछ बन गया है। जबकि ज्ञानीजन कहते हैं कि दुनिया में धन बहुत कुछ है, लेकिन यह सब कुछ भी नहीं है, क्योंकि धन से भोजन तो मिल सकता है परन्तु भूख नहीं। धन से दवा मिल सकती है, पर स्वास्थ्य नहीं। धन से एकान्त मिल सकता है, लेकिन शांति नहीं। धन से साथी मिल सकते हैं, पर सच्चे मित्र नहीं। धन से बिस्तर मिल सकता है, किन्तु आनन्दमयी नींद नहीं। धन से आभूषण मिल सकते हैं, रूप नहीं। कहने का आशय है कि आज आवश्यकता है तो धन के साथ-साथ कर्म के महत्व को समझने की। धार्मिक, नैतिक, व्यवहारिक चरित्रनिष्ठ बनने की। धन से अधिक धर्म को श्रेयस्कर जानने और मानने की। चौरासी लाख योनियों में मानव को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है, क्योंकि प्रकृति ने मनुष्य को बुद्धि, विवेक और वाणी के तीन अनमोल उपहार दिए हैं। ईश्वर की यह कृपा पशुओं को प्राप्त नहीं है। अत: हमें इनके महत्व को समझकर इनका सदुपयोग करना चाहिए। अत: हम अपने स्वभाव को इतना मधुर बना लें कि हमारे चेहरे पर हरपल मुस्कान, भावों में कोमलता व वचनों में मिठास भरी हो। यदि वाणी में संयम न हो तो सारे व्रत, उपवास, पूजा-पाठ, दान-पुण्य, भक्ति सबके सब अधूरे हैं। अत: वाणी की मधुरता को बनाए रखें …।

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