पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – कठिन कलिकाल में भगवन्नाम स्मरण, उदारता, पारमार्थिक विचार, निष्कामता और सत्संग ही भवतारक साधन हैं…! भगवन्नाम अनन्त माधुर्य, ऐश्वर्य और सुख की खान है। सभी शास्त्रों में नाम की महिमा का वर्णन किया गया है। इस नानाविध आधि-व्याधि से ग्रस्त कलिकाल में हरिनाम-जप संसार सागर से पार होने का एक उत्तम साधन है। यदि परम ज्ञान अर्थात्, आत्मज्ञान की इच्छा है और उस आत्मज्ञान से परम पद पाने की इच्छा है तो खूब यत्नपूर्वक, दृढ़ विश्वास के साथ एवं श्रद्धापूर्वक श्रीहरि के नाम का कीर्तन करें। श्रद्धापूर्वक जप करने से अनुपम लाभ प्राप्त होता है। श्रद्धा बहुत ऊँची चीज है। विश्वास और श्रद्धा का मूल्यांकन करना संभव ही नहीं है। जैसे अप्रिय शब्दों से अशांति और दुःख पैदा होता है ठीक ऐसे ही श्रद्धा और विश्वास पूर्वक श्रीहरि नाम संकीर्तन करने से अशांति शांति में बदल जाती है, निराशा आशा, क्रोध क्षमा में, मोह समता में, लोभ संतोष में और काम राम में बदल जाता है। श्रद्धा और विश्वास के बल से और भी कई रासायनिक परिवर्तन होते हैं। श्रद्धा के बल से शरीर का तनाव शांत हो जाता है, मन संदेह रहित हो जाता है, बुद्धि में कई गुणा अधिक योग्यता आती है और अज्ञान की परतें हट जाती हैं…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मंत्र दिखने में बहुत छोटा होता है लेकिन उसका प्रभाव बहुत बड़ा होता है। हमारे पूर्वज ॠषि-मुनियों ने मंत्र बल से ही सारी ॠद्धियाँ-सिद्धियाँ व इतनी बड़ी चिरस्थायी ख्याति प्राप्त की है। नाम को निर्गुण (ब्रह्म) एवं सगुण (राम) से भी बड़ा बताते हुए श्रीतुलसीदास जी ने तो यहाँ तक कह दिया कि “अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा।। मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें।। अर्थात्, ब्रह्म के दो स्वरूप हैं – निर्गुण और सगुण। ये दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं। मेरी मति में नाम इन दोनों से बड़ा है, जिसने अपने बल से दोनों को वश में कर रखा है। अंत में नाम को राम से भी अधिक बताते हुए तुलसीदास जी कहते हैं – सबरी, गिद्ध, सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ। नाम उधारे अमित खल बेद गुन गाथ।। श्री रघुनाथ जी ने तो शबरी, जटायु गिद्ध आदि उत्तम सेवकों को ही मुक्ति दी, परन्तु नाम ने अनगिनत दुष्टों का भी उद्धार किया। नाम के गुणों की कथा वेदों में भी प्रसिद्ध है। अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरिनाम प्रभाऊ।। कहाँ कहौं लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई।। तात्पर्य यह है कि नीच अजामिल, गज और गणिका भी श्रीहरि के नाम के प्रभाव से मुक्त हो गये। मैं नाम की बड़ाई कहाँ तक कहूँ? राम भी नाम के गुणों को नहीं गा सकते…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – वास्तव में, नाम की महिमा वही पुरुष जान सकता है जिसका मन निरंतर श्रीभगवन्नाम के चिंतन में संलग्न रहता है, नाम की प्रियता और मधुर स्मृति से जिसको क्षण-क्षण में रोमांच और अश्रुपात होते हैं, जो जल के वियोग में मछली की व्याकुलता के समान क्षणभर के नाम-वियोग से भी विकल हो उठता है, जो महापुरुष निमेषमात्र के लिए भी भगवान के नाम को छोड़ नहीं सकता और जो निष्कामभाव से निरंतर प्रेमपूर्वक जप करते-करते उसमें तल्लीन हो चुका है। साधना-पथ में विघ्नों को नष्ट करने और मन में होने वाली सांसारिक स्फुरणाओं का नाश करने के लिए आत्मस्वरूप के चिंतनसहित प्रेमपूर्वक भगवन्नाम-जप करने के समान दूसरा कोई साधन नहीं है। नाम की महिमा के विषय में संत श्रीज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं – “नाम संकीर्तन की ऐसी महिमा है कि उससे सब पाप नष्ट हो जाते हैं। फिर पापों के लिए प्रायश्चित करने का विधान बतलाने वालों का व्यवसाय ही नष्ट हो जाता है, क्योंकि नाम-संकीर्तन लेशमात्र भी पाप नहीं रहने देता। यम-दम आदि इसके सामने फीके पड़ जाते हैं, तीर्थ अपने स्थान छोड़ जाते हैं, यमलोक का रास्ता ही बंद हो जाता है। यमराज कहते हैं – हम किसको यातना दें? दम कहते हैं – हम किसका भक्षण करें? यहाँ तो दमन के लिए भी पाप-ताप नहीं रह गया ! अतः भगवन्नाम का संकीर्तन इस संसार के सभी दुःखों को नष्ट कर देता है, जिससे सम्पूर्ण विश्व आनन्द से ओत-प्रोत हो जाता है…।
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