पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – आत्म-विश्वास और विजय की उद्दाम भावना लक्ष्य-पूर्ति में सहायक एवं सफलता के सहज साधन हैं..! निस्सन्देह आत्म-विश्वास अपने उद्धार का एक महान सम्बल है। निराशा में ही आशा का संचार करने वाला, दुःख को भी सुख में बदल डालने वाला, विपत्तियों में भी आगे बढ़ने की प्रेरणा देने वाला, असफलताओं में भी सफलता की ओर अग्रसर करने वाला, तुच्छ से महान, सामान्य से असामान्य बनाने वाला वह कौन सा तत्व है? वह है – मनुष्य का अपने ऊपर भरोसा, अपनी आत्म-शक्ति पर अटूट विश्वास। आत्म-विश्वास मनुष्य की शक्तियों को संगठित करके उन्हें एक दिशा में लगाता है। शारीरिक, मानसिक शक्तियाँ आत्म-विश्वासी के इशारे पर नाचती हैं और कार्य करती हैं। जो अपनी शक्तियों का स्वामी है, नियन्त्रण कर्ता है उसे संसार में कोई भी कमी नहीं रहती। सिद्धि, सफलतायें स्वयं आकर उसके दरवाजे खटखटाती हैं। अतः आत्मविश्वासी मनुष्य का जीवन अविराम गति से विजय की ओर अग्रसर होता रहता है…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि मनुष्य अनंत संभावनाओं का स्रोत है, भूमि के गर्भ में प्रवाहित अनंत जलराशि की तरह। जब तक उस जल तक पहुंच नहीं बन पाती उससे वंचित रह जाते हैं। कुआं खोदकर या नलकूप लगाकर उस अपार जल राशि से जुड़ा जा सकता है, उसे प्राप्त किया जा सकता है। कुआं या नलकूप जल नहीं है, अपितु जल तक पहुंचने का माध्यम है। अपार जलराशि का दोहन करने के लिए किसी न किसी माध्यम की आवश्यकता पड़ती है और उसे हम ही तलाशते हैं। मनुष्य की क्षमता भी अपरिमित है और उसके विकास के लिए, उसको जानने, खोजने और समुचित उपयोग करने के लिए आत्मविश्वास रूपी माध्यम अत्यंत आवश्यक है। आत्मविश्वास ही आत्मबल का आधार है; आत्मविश्वास का सत्य पर आधारित होना अनिवार्य है ! प्रयास कभी गलत नहीं होता, परन्तु यदि दिशा ही गलत हो तो सही लक्ष्य की प्राप्ति असंभव होगी। आकांक्षाओं और आवश्यकताओं के अंतर को समझना पड़ेगा, क्योंकि आवश्यकताएं संतुष्टि का मार्ग है, जबकी आकांक्षाएं लोभ को जन्म देती है…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – आस्तिकता आत्मविश्वास उत्पन्न करने का साधन अथवा मार्ग है। ईश्वर में विश्वास अथवा आस्तिकता द्वारा हम अपनी आत्मशक्ति का ही जागरण करते हैं। आस्था अथवा विश्वास का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। विश्वास के बिना हम एक कदम भी जमीन पर नहीं रख सकते। जब हमें पूरा विश्वास होता है कि हम खड़े रह सकेंगे और चल सकेंगे तभी एक के बाद दूसरा कदम जमीन पर पड़ता है। विश्वास के सहारे ही तेज दौड़ पाते हैं और बड़े-बड़े कार्यों में सफलता प्राप्त कर लेते हैं। निर्बल, असहाय, दीन, दुःखी, दरिद्री कौन? जिसका आत्म- विश्वास मर चुका है। भाग्यहीन कौन? जिसका अपने विश्वास ने साथ छोड़ दिया है। वस्तुतः आत्म-विश्वास जीवन नैया का एक शक्तिशाली समर्थ मल्लाह है, जो डूबती नाव को पतवार के सहारे ही नहीं वरन् अपने हाथों से उठाकर प्रबल लहरों से पार कर देता है। आत्म-विश्वासहीन व्यक्ति जीवित होता हुआ भी मृत तुल्य है, क्योंकि उत्साह, तेज, शक्ति, साहस, स्फूर्ति, आशा, उमंग के साथ जीना ही जीवन और ये सब वहीं रहते हैं, जहाँ आत्म-विश्वास होता है…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – एकाग्रता ही सफलता की जननी है। एकाग्रता बड़ी साधना है। एकाग्र मन से कर्म करने वाला मार्ग में आने वाली सभी कठिनाइयों का निराकरण बड़ी ही आसानी से कर लेता है। एकाग्रता से ही उसके अंदर स्फूर्ति, चेतना, उत्साह, सजगता, संयम एवं धैर्य का भाव पैदा होता है। एकाग्रता से कर्म करने वाला विचलित नहीं होता, उसके अंदर छिपी शक्ति उसे निर्भय बनाती है। वह नित नए उत्साह एवं आनंद का अनुभव करता है। निराशा, हताशा, नकारात्मकता, मिथ्या भाग्यवादिता, पूर्वाग्रह जैसी बुराइयों से वह हमेशा दूर रहता है। मन की एकाग्रता एवं अभ्यास के द्वारा हम अपनी इन कमियों को दूर करते हुए सफलता के नजदीक पहुंचते हैं। एकाग्रता और अभ्यास के द्वारा हम अपनी गलतियों की पुनरावृत्ति को रोकते हैं। किसी प्रतियोगी परीक्षा में उत्तीर्ण होने या साक्षात्कार में सफल होने के लिए आत्म-विश्वास, कठोर श्रम, दूरदर्शिता, संयम , नियमित अध्ययन जैसे गुणों के साथ-साथ एकाग्रता एवं दृढ़ता का होना अति आवश्यक है। एकाग्रता और अभ्यास से ही हमारे भीतर सफलता के लिए आत्मविश्वास की भावना पैदा होती है। एकाग्रता द्वारा ही साधक अपने अंदर छिपे अक्षय शक्ति के भण्डार को पहचानता है। असीम ऊर्जा के स्रोत का झरना कल-कल ध्वनि के साथ मार्ग में आने वाले सभी चट्टानों को काटता हुआ अपनी राह स्वयं बना लेता है। अतः यही वह झरना है जो पवित्र नदी का रूप धारण करता हुआ सफलता के सागर में विलीन होता है…।
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