पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – सत्य नित्य-विद्यमान सत्ता है असत्य का सर्वथा अभाव है अथवा जो त्रय-काल में कहीं नहीं है। अतः सत्य-अन्वेषण सत्य-आचरण ही सुखकर कल्याणकारक है…! सत्य के आचरण से ही शुद्ध होता है – मन। सत्य आचरण से उत्पन्न होती है – विचारों की शक्ति। सत्यनिष्ठ व्यक्ति अपने एक स्वरूप में स्थिर रह कर आत्म-लाभ जैसा सुख भोगता है। उसका अन्तःकरण दर्पण की तरह स्वच्छ और मस्तिष्क प्रज्ञा की तरह संतुलित रहता है। उसे न तो मानसिक द्वन्द्वों से त्रस्त होना पड़ता है और न ही निरर्थक वितर्कों से अस्त व्यस्त। वह जो कुछ सोचता है सारपूर्ण सोचता है और जो कुछ भी करता है कल्याणकारी करता है। मिथ्यात्व के दोष से मुक्त सत्यनिष्ठ व्यक्ति के पास कुकल्पनाओं का रोग नहीं आता। वह तो अपनी सीमा, अपनी सामर्थ्य और अपने साधनों के अनुरूप ही जीवन की कल्पनाएं किया करता है और अधिक से अधिक यथार्थ के धरातल पर ही विचरण किया करता है। आप सदा सत्य बोलिए, अपने विचारों को सत्यता से परिपूर्ण बनाइए और आचरण में सत्यता बरतिए। अपने आपको सत्यता से सराबोर रखिए, ऐसा करने से आपको एक ऐसा प्रचंड बल प्राप्त होगा, जो संसार के समस्त बलों से अधिक होगा…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने उदाहरण के लिए मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम के जीवन चरित्र को परिभाषित करते हुए बताया कि विपरीत व विकट परिस्थितियों मे भी प्रभु श्रीराम ने कभी असत्य का दामन नही थमा। सदा सत्य मार्ग के ही अनुगामी बने रहे, जिसके कारण विचारो की शक्ति स्वतः ही उनका मार्ग प्रशस्त करती रही। यह उनकी सत्याचरण से उत्पन्न विचारो की ही शक्ति थी जिसके कारण रावण एक कुशल योद्धा एवं एक दक्ष रण व नीतिकार होकर भी नंगे पाँव वन-वन भटक रहे दो संन्यासियों से हार गया। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा कि यही वह शक्ति है जिसके सामने राम की हर मुसीबत बौनी पड़ गई। असत्य अस्थिर और उतावला होता है। उसे कभी भी पहचाना और दण्डित किया जा सकता है। सत्य शांत और गम्भीर होता है। सत्य परेशान हो सकता है, लेकिन पराजित कभी नही हो सकता। सत्य का मार्ग कठिन अवश्य है परन्तु इसका अंत सुखद है एवं जीव को आनंद प्रदान करने वाला है। “आचार्यश्री” जी ने कहा – प्रत्येक मानव को प्रज्ञा के माध्यम से सत्य की खोज करनी चाहिए। सत्य को कहने की आवश्यकता नहीं होती है वह तो सूर्य के प्रकाश के समान है। जब किसी व्यक्ति के जीवन में सत्य प्रकट हो जाता है, तो उसके बाद वह किसी का तिरस्कार नहीं कर सकता, क्योंकि सत्य ही धर्म है। सत्य का आचरण ही संसार में शांति की स्थापना कर सकता है..।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – सृष्टि के आदि में सत्य की जो महत्ता और श्रेष्ठता थी वह वैसी ही आज भी बनी हुई है। कोई मानवीय नियम समय के अनुसार भले ही बदले और संशोधित किए गये हों, किन्तु सत्य के नियम में आज तक कोई परिवर्तन नहीं किया गया और न ही कभी किया जा सकता है। सत्य सारे जीवन और सारी सृष्टि का एक मात्र आधार है। सत्य को धारण करना और असत्य को त्याग देना ही मानवता है। आत्मबल को बढ़ाने का कार्य सत्य ही करता है। सत्य ही परमधर्म का मार्ग है। सत्यान्वेषण ही साधना की प्रथम सीढ़ी है। अतः सत्यान्वेषी बनें। सत्य का मार्ग गंतव्य तक ले जाने वाला होता है। भगवान शिव ने माता पार्वती से कहा – “उमा कहऊँ मैं अनुभव अपना, सत हरि भजन जगत सब सपना… ” अर्थात्, केवल हरि का निरंतर स्मरण ही एक मात्र सत्य है बाकी इस जगत में सभी कुछ केवल स्वप्न की भांति है। सच्चा सुख तो केवल परमात्मा की शरण में है। जिस प्रकार इस नश्वर शरीर में रोग लग जाने के उपरांत चिकित्सक से परामर्श लेना पड़ता है, ठीक उसी प्रकार जीवन को भवरोग से बचाने के लिए सदगुरु का मार्गदर्शन और ईश्वर का चिंतन परम आवश्यक है…।
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