अध्यात्म के अभाव में असुख, अशाँति एवं असंतोष की ज्वालाएँ मनुष्य को घेरे रहती है : स्वामी अवधेशानन्दं जी महाराज
पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – भ्रम-भय, द्वंद, अवसाद-अभाव आदि मनुष्य मन की सम्पूर्ण समस्याओं से निवृत्ति का एकमात्र मार्ग है – अध्यात्म ! भारतीय संस्कृति चिरकाल से ही आध्यात्मिक मूल्यों की संपोषक रही है। जो अन्य के अधिकार, स्वाभिमान-सम्मान, सुख-स्वायत्तता और संवेदनाओं की अभिरक्षा में तत्पर रहने का संदेश देती है ..! अध्यात्म, जीवन जीने की एक कला है जो हमें सुख व शान्ति की राह से मनुष्यत्व के विकास पर ले जाता है। अध्यात्म मानव जीवन के चरमोत्कर्ष की आधारशीला है, मानवता का मेरुदण्ड है।
इसके अभाव में असुख, अशाँति एवं असंतोष की ज्वालाएँ मनुष्य को घेरे रहती है। मनुष्य जाति की अगणित समस्याओं को हल करने और सफल जीवन जीने के लिए अध्यात्म से बढ़कर कोई उपाय नहीं है। इस संसार में मानव जीवन से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई उपलब्धि नहीं मानी गई है। एक मात्र मानव जीवन ही वह अवसर है जिसमें मनुष्य जो भी चाहे प्राप्त कर सकता है। जो मनुष्य इस सुरदुर्लभ मानव जीवन को पाकर उसे सुचारु रूप से संचालित करने की कला नहीं जानता है अथवा उसे जानने का प्रमाद करता है, तो यह उसका बड़ा दुर्भाग्य ही है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – विषमता में समता स्थापित करना, जीवन जीने की पहली कला है। हर मनुष्य के साथ कुछ न कुछ विसंगतिया जुड़ी रहती हैं। ऐसा कोई आदमी नही है जिसके जीवन में सदा एकरूपता हो। हमारा जीवन मैदान की तरह नहीं हैं। हमारा जीवन नदी की तरह है, जिसमें ढेर सारे घुमाव हैं, उतार-चढ़ाव हैं। उसमें अपने जीवन में स्थिरता बनाकर रखना, ये हमारे जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि है, तो हम कैसे जीयें? विषमता आना संयोग है, और विषमता से विचलित हो जाना हमारा अज्ञान। महान पुरुषों के जीवन में भी बड़ी-बड़ी विषमताएँ आती हैं, लेकिन वे उसमें विचलित नहीं होते हैं। वे कुशलता पूर्वक उसे पार कर लेते हैं। आप लोग गाड़ी चलाते हैं, सपाट रास्ते पर तो हर कोई गाड़ी दौड़ा लेता है। पर कोई उबड़-खाबड़ रास्ता हो, कुटिल सड़कें हों, संकरी हों, जिस पर चलना मुश्किल हो, अगर उस पर चलने की परिस्थिति आ जाये, तो क्या करते हो? साधारण व्यक्ति तो पीछे की ओर मुड़ जाता है कि इस रास्ते पर चलना हमारे बस का नहीं, हम नहीं चल सकते और जो थोड़े निपुण होते हैं वो कहते हैं कि कोई बात नहीं जब हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है, तो इसी से निकलना है और सावधान होकर पार होना है। तो जो रास्ते पर चलने में निपुण होते हैं, वे पार हो जाते हैं, क्योंकि टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर सीधे चलने की कला उनके पास है। पथ की विषमताओं में विचलित ना होना, सब प्रकार की विषमताओं को पार कर देना ही जीवन जीने की कला है …।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – पुरुषार्थी बनिए। अपने ऊपर हताशा और आलस्य को हावी नहीं होने दीजिए। हताशा और आलस्य से मुक्त होकर सतत् प्रयत्नशील बनिए, कर्मठता अपने जीवन में प्रकट कीजिए, और एक कर्मयोगी की तरह जीवन जीयें। वस्तुतः जिसका जीवन कर्मयोगी की तरह होता है, चाहे वो गृहस्थ ही क्यों न हो, एक तपस्वी का रूप प्रकट होता है। अपने भीतर वह स्वरूप प्रकट होना चाहिए। थोड़ी-थोड़ी बात में घबरा उठने वाला मनुष्य अपने जीवन में कुछ भी उपलब्धि अर्जित नहीं कर सकता। इसलिए कर्मठता होनी चाहिए, सक्रियता होनी चाहिए।
जीवन में आने वाली हर परिस्थिति को एक चुनौती की तरह स्वीकारना चाहिए और अपनी कुशलता से उसे एक उपलब्धि में परिवर्तित कर देना चाहिए। अतः कर्मयोगी हमें बनना है, ऐसा लक्ष्य बनाओ। बहुत सारे ऐसे लोग हैं जिनकी कर्मठता एक मिसाल है। वे कर्मयोगी की संज्ञा को प्राप्त करने के अधिकारी हैं। अपने दम पर उन्होनें लोक और लोकोत्तर दोनों क्षेत्रों में ऊँचाइयों को पाया है। आप भी वैसा कर सकते हो, लेकिन हम देखते हैं कि आजकल ऐसे लोगों का दिनों-दिन अभाव होता जा रहा है। ऐसे लोगों की संख्या कम होती जा रही है। आज लोगों में वो चीजें नहीं हैं, उनमें वो कर्मठता या कर्मण्यता कम दिखती है, और लोग दूसरे रास्ते पर चले जाते हैं। अतः पुरुषार्थी बनें, कर्मयोगी बनें; क्योंकि कर्मयोगी बनना जीवन की कला है …।
पूज्य आचार्यश्री जी कहा करते हैं कि मानव जीवन वह पवित्र क्षेत्र है, जिसमें परमात्मा नें सारी विभूतियां बीज रूप में रख दी है जिनका विकास नर को नारायण बना देता है। किंतु, इन विभूतियों का विकास तभी होता है, जब जीवन को व्यवस्थित रूप से संचालन किया जाय। अन्यथा अव्यवस्थित के आधार पर दरिद्रता की वृद्धि कर देता है।जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए एक वैज्ञानिक पद्धति है उसे अपना कर चलने पर इसमें वाँछित फलों की उपलब्धि की जा सकती है।जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए वैज्ञानिक पद्धति एक मात्र अध्यात्म है।
इस सर्वश्रेष्ठ कला को जाने बिना जो मनुष्य अस्त-व्यस्त ढंग से जीवन बिताता रहता है, उसे उनमें से कोई भी ऐश्वर्य उपलब्ध नहीं हो सकता, जो लोक से लेकर परलोक तक फैले है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जिनके अंतर्गत आदि से लेकर अंत तक सारी सफलताएँ सन्निहित है। जीवन विषयक अध्यात्म हमारे गुण, कर्म, स्वभाव से संबंधित है। इसलिए हमें चाहिए कि हम अपने गुणों की वृद्धि करते रहें। ब्रह्मचर्य, सच्चरित्रता, सदाचार, मर्यादा-पालन और अपनी सीमा में अनुशासित रहना आदि ऐसे गुण है, जो जीवन जीने की कला के नियम माने गये हैं, जिन्हें जीवन में धारण करने से जीवन सफल हो जाता है …।
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