पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – हमें यह समझने की आवश्यकता है कि भौतिक वस्तुओं, व्यक्तियों और स्थितियों में केवल हमें क्षणिक सुख मिल सकता है। उनसे प्राप्त प्रसन्नता न तो सच है और न ही स्थायी है ..! चिरस्थाई प्रसन्नता व आनंद ही सभी लक्ष्यों का परम लक्ष्य है और यह चेतनता की वह अवस्था है, जो आपके भीतर पहले से विद्यमान है। किसी कारण से मिली खुशी दुःख का ही एक रुप है, क्योंकि वह कारण आपसे कभी भी छिन सकता है। अकारण खुश होना मायने में वह खुशी है, जिसका अनुभव आप सभी करना चाहते हैं। जब आपका जीवन आपके भीतरी आनंद की अभिव्यक्ति बन जाता है, तब आप स्वयं को इस ब्रह्यांड की रचनात्मक ऊर्जा के साथ एकाकार अनुभव करते हैं और एक बार यह क्रम बन जाए, तो आपको ऐसा लगता है कि आप वह सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं, जो आप पाना चाहते हैं। स्थायी सुख की कुंजी है – अपने स्रोत, अपनी अंतर्रात्मा के अपरिवर्तनीय सारतत्त्व के साथ तादात्म्य स्थापित करना। उसके बाद आप सुख की तलाश नहीं करते, क्योंकि यह आपके भीतर ही है। सकारात्मक मन से महत्त्वपूर्ण है – शांत मन होना। शांत मन निर्णय, विश्लेषण ओैर व्याख्या की सीमा से परे होता है। जब आप जीवन के सारे वैषम्य स्वीकार कर लेते हैं, तो आप सुख और दुःख के किनारों के बीच, बिना किसी एक से अटके, सहजता से तैर सकते हैं। और, यही असली स्वाधीनता की प्राप्ति है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – पुण्य स्थायी प्रसन्नता देता है। चिर-स्थायी प्रसन्नता की मूल कुंजी है – विवेक। प्रसन्नता प्राप्ति का मुख्य रहस्य यह है कि मनुष्य अपने लिए सुख की कामना छोड़कर अपना जीवन दूसरों की प्रसन्नता में योजित करे। दूसरों को प्रसन्न करने के प्रयत्न करने में जो कष्ट भी प्राप्त होता है वह भी प्रसन्नता ही देता है। इतिहास ऐसे बलिदानियों से भरा पड़ा है कि जिस समय उनको मृत्यु वेदी पर प्राण हरण के लिये लाया गया उस समय उनके मुख पर जो आह्लाद, जो तेज, जो मुस्कान और जो प्रसन्नता देखी गई, वह काल के अनन्त पृष्ठ पर स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गई है। एक साधारण से साधारण व्यक्ति भी अपने जीवन की किसी न किसी ऐसी घटना का स्मरण करके समझ सकता है कि जब उसने कोई परोपकार का काम किया था तब उसके हृदय में प्रसन्नता की कितनी गहरी अनुभूति हुई थी। प्रसन्नता पदार्थ सापेक्ष नहीं, अपितु विचार सापेक्ष है। चिर-स्थायी प्रसन्नता का मूल-आधार आध्यात्मिक चिन्तन में निहित है। अतः सत्संग-स्वाध्याय एवं सत्पुरुषों का अनुशीलन ही श्रेयस्कर है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – जिसका मन वश में है, जो राग-द्वेष से रहित है, वही स्थायी प्रसन्नता को प्राप्त करता है। जो व्यक्ति अपने मन को वश में कर लेता है उसी को कर्मयोगी भी कहा जाता है। इस संसार में मनुष्य दो प्रकार के हैं – एक तो दैवीय प्रकृति वाले, दूसरे आसुरी प्रकृति वाले। इसी तरह से हमारे मन में भी दो तरह का चिंतन चलता है – सकारात्मक एवं नकारात्मक चिंतन। सकारात्मक सोच वाले खुश और नकारात्मक सोच वाले दु:खी देखे जाते हैं। हमारी सोच ही हमें सुखी और दु:खी बनाती है। हम जैसा सोचते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। हमारी सोच या चिंतन जैसा होता है, वह हमारे चेहरे पर, हमारे व्यवहार में, हमारे कार्यो में दिखने लगता है। जब हमारे अंदर भय और शंकाएं प्रवेश कर जाती हैं तो वह हमारी आंखों व हमारे हावभाव से पता चलने लगता है और हमारे भीतर जब खुशियां प्रवेश करती हैं या हमारा चिंतन हास्य या खुशी का होता है तो हमारे सारे व्यक्तित्व से खुशी झलकती है। जब हम मुस्कुराहट के साथ लोगों से मिलते हैं तो सामने वाला भी हमसे खुशी के साथ मिलता है। जब हम दु:खी होते हैं या गुस्से में होते हैं तो दूसरे लोग हमें पसंद नहीं करते और वे हमसे दूर जाने का प्रयास करते हैं। मुरझाये या दु:खी लोगों को कोई पसंद नहीं करता। बहुत से लोगों की सोच या चिंतन, अपना दु:ख बताने की होती है। ऐसे लोग स्वयं तो दु:खी रहते ही हैं, दूसरों को भी दु:खी करते हैं। हमारा चिंतन यदि सकारात्मक है तो हममें दया, करुणा, उदारता, सेवा, परोपकार जैसे सदगुणों को देने वाली शक्ति का संचार होता है। यदि हमारा चिंतन नकारात्मक है तो हम राग-द्वेष के बंधन में बंधते चले जाते हैं। सकारात्मक चिंतन के कारण ही महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण ने दुर्योधन के सामने पांडवों को पांच गाँव देने का प्रस्ताव रखा था, पर नकारात्मक सोच वाले दुर्योधन ने श्रीकृष्ण का सकारात्मक चिंतन वाला प्रस्ताव ठुकरा कर युद्ध करने का निश्चय किया था, जिसका परिणाम भारी मात्र में जन-धन की हानि के रूप में सामने आया। इसलिए हम कह सकते हैं कि दु:ख और सुख का एकमात्र कारण हमारा चिंतन है कि हम कैसा चिंतन करते हैं। जो दु:खों में भी सुखों की तलाश करते हैं, वही सच्चे अर्थों में मानवता की सेवा कर पाते हैं और संसार को खुशियां बांटते हैं। अतः हमारा चिंतन सदैव सकारात्मक ही होना चाहिए …।
*********
Related Posts
Comments are closed.