पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – भगवदीय-अनुग्रह, दैव-अनुकूलता एवं सदगुरू-कृपा आशीष; विशुद्ध अन्त:करण द्वारा ही अनुभूत होते हैं..! सत्य बोलना, प्रिय बोलना, मधुर बोलना, और कम बोलना, जीवन में व्रत रखना, परहित के कार्य करना- इससे विशुद्ध अन्तःकरण का निर्माण होता है। जिसका अन्तःकरण विशुद्ध नही है वह चाहे अपनी स्थूल काया को कितने ही पफ-पाऊडर-लाली और वस्त्रालंकारों से सुसज्जित कर दे, लेकिन भीतर की तृप्ति नहीं मिलेगी, हृदय का आनन्द नहीं मिलेगा। सत्संग, भजन, कीर्तनादि से शुद्ध अन्तःकरण का निर्माण होता है, सदभाव का निर्माण होता है। सदभाव कहाँ से आता है ? शुद्ध अन्तःकरण से। सोने-चाँदी के गहनों अथवा वस्त्रों से देह की सजावट होती है जबकि सत्संग-कीर्तन आदि से शुद्ध अन्तःकरण का निर्माण होता है। देह की अपेक्षा विशुद्ध अन्तःकरण हमारे ज्यादा निकट है। बाहर की महंगी वस्तुएं छीन जाने का भय पैदा कर देती हैं, जबकि सेवा, साधना, परोपकार के द्वारा कमाए गए पूण्यकर्म को कोई लूट नहीं सकता, कोई छीन नही सकता। यह वह कमाई है जो हमारे साथ जाने वाली है। अतः विशुद्ध अन्तःकरण का निर्माण करने वाला शील ही सच्चा आभूषण है। शील में क्या आता है? सत्य, तप, व्रत, सहिष्णुता, उदारता आदि सदगुण। आप जैसा अपने लिए चाहते हैं, वैसा दूसरों के साथ व्यवहार करें। अपना अपमान नहीं चाहते तो दूसरों का अपमान करने का सोचें तक नहीं। आपको कोई ठग ले, ऐसा नहीं चाहते तो दूसरों को ठगने का विचार नहीं करें। आप किसी से दुःखी होना नहीं चाहते तो अपने मन, वचन, कर्म से दूसरा दुःखी न हो इसका ध्यान रखें। प्राणिमात्र में परमात्मा को निहारने का अभ्यास करके विशुद्ध अन्तःकरण का निर्माण करना यह शील है। यह महाधन है। शील, संयम, सदाचार आदि सद्गुण आभूषणों के भी आभूषण हैं, अतः जिसके जीवन में शील होता है उसको ईर्ष्या, पुण्यक्षीणता या भय नहीं होता…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि साधक वह है जो घोषणाएं ना करे, अपनी श्रेष्ठता अपनी महानता सिद्ध करने की। हमें तो एक बहुत अच्छे सजन मिले उन्होंने हमसे कहा महाराज मैं बहुत सरल हूँ, तो मैंने उनसे कहा कि आपको पता कैसे चल गया कि आप सरल हो गए है? आपकी सरलता का भी आपको पता लग गया? फूल को तो पता नही है कि वह सुरभित है, कुस्मित है, उसमे गंध है सुगंध है, मकरंद है, उसमें कोई आकर्षण है, विमोहन है, सम्मोहन है। फूल को तो पता ही नही होता वो तो अचानक उसे पता लगता है कि ये हो क्या रहा है? ये तितलियां क्यों मेरे आस-पास मंडरा रहीं है? ये भ्रमर क्यों मेरे पास आ रहें हैं? ये भौरे को क्या हो गया है? उसे तो कभी पता नही लगता कि मधुमक्खी उसमें से मधु अपह्रत कर के ले गईं। उस बावरे फूल को तो ये भी नहीं पता कि उसमे शहद भी है, कहाँ पता है उसे? उसे तो ये ज्ञान ही नही है? वह इतना निर्दोष, इतना सरल, इतना नैसर्गिक, इतना प्राकृतिक है फूल। ये बड़पन है। जहां बड़पन होगा, वहीं श्रेष्ठता होगी। अतः जहां पूजिता, पवित्रता होगी, वैदुष्य विचार होगा वहां मार्केटिंग नही होगी…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – बुद्धि की निर्मलता से कर्मों की पवित्रता स्वतः सिद्ध हो जाती है। विचार और कर्मों की पवित्रता से भावनाएं शुद्ध होती हैं। भावनाओं की शुद्धि से हृदय, मन, चित्त तथा सत्त्व की शुद्धि होती है। इस प्रकार, जब अन्तःकरण की शुद्ध और मन पवित्र हो जाता है, तब अनायास ही आत्मानुवेदन और ब्रह्मानुभूति की प्रतीति होने लगती है। अन्तःकरण की शुद्धि से समस्त इन्द्रियों के व्यवहार स्वतः ही शुद्ध हो जाते हैं और कर्मों की पवित्रता भी सम्पादित हो जाती है। पवित्रता के सम्पादन में संत-सत्पुरुषों तथा मननशील व्यक्तियों की संगति बड़ी लाभदायक होती है। दिव्यजनों तथा मननशीलों के सत्संग से बुद्धि का परिष्कार होता है। पवित्र दृष्टि से भूतमात्र (पंचभूत तथा प्राणी) में पवित्रता अनुभव होती है। जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि। पवित्र दृष्टि, पवित्र सृष्टि। विकृत दृष्टि, विकृत सृष्टि। पवित्र दृष्टि से कण-कण, अणु-अणु और बिन्दु-बिन्दु में पवित्रता के सुन्दर सौन्दर्य के दर्शन होते हैं। अतः अपने वातावरण को पवित्र बनाइए तथा अपने अन्दर और बाहर से सर्वथा शुद्ध हो जाइए। आपका अन्तःकरण विमल हो, इन्द्रिया शुद्ध हों, पवित्र हों। मन सर्वथा शुद्ध हों, देह शुद्ध हो, गेह शुद्ध हो, वस्त्र शुद्ध हों, खान-पान शुद्ध हो आदि। इस प्रकार सब ओर से, सब प्रकार से सदा सर्वत्र, शुद्धता और पवित्रता का सुसम्पादन कीजिये। शुद्धता में सम्पूर्ण ऋद्धियां तथा सिद्धियां निहित हैं। पवित्रता ही परम सौन्दर्य है। पवित्रता में ही पवमान का सौन्दर्य उद्बुद्ध होता है। पवमान की आराधना और उपासना से पूर्ण पवित्रता प्राप्त होती है, क्योंकि पवित्रता में ही ईश्वर का वास है ….।
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