पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – जप और तप की महिमा का शास्त्रों में भंडार भरा पड़ा है। दोनों का महत्व एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर बताया गया है। दोनों ही आत्म-साक्षात्कार के दो आवश्यक अंग हैं। यह यज्ञ के समान बताये गये हैं और आत्मिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये इनका अभ्यास आवश्यक बताया गया है। जप मनोनिग्रह के उद्देश्य के लिये और तप शक्तियों के जागरण के लिये। इस प्रकार की स्थिति बन जाये तो आत्म-कल्याण की उच्च कक्षाओं में अग्रसर होना आसान हो जाता है। साधना की बढ़ती हुई कठिनता के अनुरूप शक्ति और सामर्थ्य जप और तप द्वारा पूरी होती है। साधना की इस वैज्ञानिक पद्धति को छोड़कर कोई भी व्यक्ति आगे नहीं बढ़ सकता। इसलिये यह नहीं मानना चाहिये कि जप और तप व्यर्थ की बातें हैं, वरन् उनका प्रभाव मनुष्य जीवन पर तत्काल परिलक्षित होता है और उस प्रभाव के क्रमिक विकास द्वारा वह आत्म-साक्षात्कार की स्थिति तक जा पहुँचता है। इस क्रम में और भी अनेकों प्रकार की साधनायें प्रयुक्त होती हैं, किन्तु उनका मूल जप और तप ही है। इस प्रकार इन दो पहियों के सहारे ही आत्म-विकास की यात्रा पूरी होती है। अतः इन्हें लक्ष्यवेध का मुख्य अंग मानकर अपनाना चाहिये …।
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