पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – शब्द ब्रह्म है ! अतः हमारी अभिव्यक्ति में माधुर्य-पावित्रय, प्रियता-सत्यता और स्वाभाविकता रहे। अभिव्यक्ति परमात्मा की वाक्-अर्चना ही है ..! अच्छी भावनात्मक अभिव्यक्ति से संबंधों में मधुरता बढ़ती है, आत्मा की अभिव्यक्ति मन के द्वारा होती है। मन की अभिव्यक्ति वचन व कर्म के द्वारा होती है। इसलिए व्यक्ति को अपनी आत्मा की अनुभूति करने के लिए मन को जीतना पड़ेगा और मन को जीतने के लिए सबसे पहले अपने वचनों में निर्मलता व व्यवहार में मधुरता लाना होगा। बिना भाव के व्यक्ति कितना भी ज्ञानी हो, उसकी अभिव्यक्ति में मधुरता नहीं आ पाती है। जीवन को परिभाषित करते हैं – शब्द। माँ सरस्वती की अनुकंपा जब स्वरों की मधुरता बिखेरती है तो जीवन से जुड़ा हर पहलू साकार हो उठता है। अभिव्यक्ति की हर कड़ी आप सभी को जीवन के विविध पहलुओं की अनुभूति कराती है! संसार के समस्त प्राणियों में मनुष्य ही सृष्टिकर्ता की अनुपम रचना है और प्रसन्नता प्रभुप्रदत्त वरदानों में सर्वश्रेष्ठ उपहार है। अनुभवी संतों और मनीषियों द्वारा प्रसन्नता को जीवन का श्रृंगार और मधुर भाव-भूमि पर खिला हुआ सुगंधित पुष्प और विवेक का प्रतीक माना गया है। वस्तुत: प्रसन्नता व्यक्ति का ईश्वरीय गुण है, जिसकी प्राप्ति के लिए व्यक्ति को न तो किसी बड़े धार्मिक अनुष्ठान की आवश्यकता होती है और न ही किसी विशेषज्ञ की। प्रसन्नता एक मनोवृत्ति है, जिसे दैनिक अभ्यास में लाने से अंतरमन में छिपी उदासी और कुंठाजनित आसुरी मनोविकार नष्ट हो जाते हैं और व्यक्ति का जीवन प्रसन्नता से परिपूर्ण होकर आनंद से भर जाता है। दूसरे शब्दों में प्रसन्नता चुंबकीय शक्ति संपन्न एक विशिष्ट गुण है, जो दूसरों का स्नेह, सहयोग, अपनी ओर सहज में सुलभ कराने में अत्यंत सहायक होता है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मुसकान की मधुरता में चित्त की प्रसन्नता की अभिव्यक्ति है। दूसरे व्यक्ति भी स्वाभाविक मुसकान को देख हम प्रसन्न हो उठते हैं, जिससे अपनत्व की सहजता प्रकट होती है और परस्पर सामीप्य का अनुभव होता है। इच्छाओं की अपूर्ण-स्थिति में क्रोध की उत्पत्ति होती है। अपनी इच्छाओं को दूसरे से पूर्ण कराने की आशा में निराशा हाथ लगने पर क्रोध का भयावह रूप प्रकट होता है। इस तरह वातावरण में कड़वाहट भर जाता है। परस्पर भिन्नता बढ़ जाती है। चित्त उद्विग्न हो जाता है। शालीन व शांत भाव से किया गया प्रतिकार ज्यादा कारगर और प्रभावी होता है, शालीन भाषा के प्रयोग से बड़े से बड़े कार्य सरल हो जाते हैं, वाणी में विनम्रता और भाषा की संयमता से अनेकों युद्ध भी टाले जा सकते हैं। प्रसन्नता ईश्वरीय वरदान के साथ ही जीवन की साधना भी है। व्यक्ति को प्रसन्न रहने के लिए एक खिलाड़ी की भांति जीवन-शैली और दृष्टिकोण को अपनाना होगा, अर्थात् जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता-असफलता, लाभ-हानि, छोटा-बड़ा, सुख-दु:ख आदि उसके चिंतन के विषय न होकर अपने लक्ष्य पर ही दृष्टि रखनी होगी। इसके लिए अपने व्यवहार में सदाचरण और सद्गुणों के साथ ही सज्जनता का समावेश भी करना होगा, क्योंकि सदाचार, सद्गुण और सज्जनता का संबंध मन से नहीं वरन् व्यक्ति के अंत:करण से ही होता है। मन की प्रसन्नता का सीधा संबंध व्यक्ति के विचारों से होता है। जब व्यक्ति का चिंतन सात्विक होगा, तब उसका मन प्रभु में होगा और प्रभु में मन होने पर प्रसन्नता का होना स्वाभाविक है। प्रसन्न रहने वाला व्यक्ति अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव से व्यवहार करता हुआ अपने लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेता है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – जीवन के उन्नयन के लिए एवं ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिए आत्म-निर्माण का सत्संकल्प लें। ईश्वर को सर्वव्यापी तथा न्यायकारी मानकर उनके अनुशासन को अपने जीवन में उतारने का सत्संकल्प लें। शरीर को भगवान का मंदिर समझकर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा अयोग्य की रक्षा करें। मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम का सतत् अभ्यास किया जाना चाहिए। अपने आपको समाज का एक अंग मानें और सबके हित में अपना हित समझें। ऐसा संकल्प लें कि हम मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे। समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे तथा अपने चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे। इसलिए अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करें। दूसरों के साथ वह व्यवहार कदापि न करें जो हमें अपने लिए पसंद नहीं। संसार में सत्प्रवृत्तियोँ के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का अंश नियमित रूप से लगाते रहना चाहिए। परंपराओं की तुलना में विवेक को महत्व दें सज्जनोँ को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नव-सृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लें। राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान रहें। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को भी श्रेष्ठ बनाएँगे, तो हमारा समाज और राष्ट्र अवश्य बदलेगा, इस तथ्य पर हमारा पूर्ण विश्वास है …।
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