पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सदगुरुदेव” जी ने कहा – सृष्टि के नानात्व में विविधता-विभिन्नता दिखाई पड़ती है। प्रकृति और प्राणी समूह परस्पर भिन्न हैं, किन्तु उन सभी के मूल में एक ही सत्ता समाहित है। इन बहुरूपों में एकत्व और समत्व का अनुभव ही अध्यात्म है …! अध्यात्म आत्मा को चेतन से जोड़ने वाला एक मार्ग है। अध्यात्म का अर्थ है – अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना, मानना और दर्शन करना अर्थात्, अपने आप के बारे में जानना या आत्मप्रज्ञ होना। गीता के आठवें अध्याय में अपने स्वरुप अर्थात्, जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है। “परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते …”। अध्यात्म शब्द आत्म में अधि उपसर्ग लगा कर बना है। आत्मा को ऊपर उठना या आत्मोन्नति ही इसका अर्थ है। जो व्यक्ति परमात्मा को सर्वत्र तथा प्रत्येक जीव में समान रूप से देखता है और यह समझता है कि इस नश्वर शरीर के भीतर जो आत्मा, वो परमात्मा का ही स्वरूप है वो कभी भी विनिष्ट नही होता वही वास्तव में आत्मोन्नति की चरम अवस्था को प्राप्त होता है। परमात्मा ही समस्त जीवों का आदि, मध्य तथा अंत है। अतः अध्यात्म विद्या आत्म और ईश्वर के संबंधों को प्रकट करती है।विज्ञान का कार्य भौतिक पदार्थों से विश्व को जोड़ना है और अध्यात्म का कार्य मानसिक रूप से विश्व को जोड़ना है। अतः दोनों के मिलन से ही कल्याण की उत्पत्ति होगी …।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – भेदभाव करने वाले अक्सर दुखी और निराश दिखाई देते हैं, जबकि समानता का व्यवहार करने वाले हमेशा प्रसन्न और ऊर्जावान होते हैं। भारतीय दर्शन सभी जीवों में एकत्व की बात कहकर लोगों को अपनी ऊर्जा का सही उपयोग करने की सलाह देता है। अध्यात्म भारत की शक्ति है, इसे धर्म से जोड़ना गलत है। युवाओं को अध्यात्म से जोड़ना आज की समय की मांग है। अध्यात्म से ही अन्य गुणों का ज्ञान होता है। अध्यात्म विज्ञान, आध्यात्मिक साधनायें इतनी सामर्थ्यवान, प्रभावशाली हैं कि उनके द्वारा भौतिक विज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण सफलतायें उपलब्ध की जा सकती हैं। हमारे देश में अनेकों ऋषियों, महर्षि-सन्त, महात्माओं, योगी, यतियों का जीवन इसका प्रमाण है। बिना साधनों के उन्होंने आज से हजारों वर्ष पूर्व अन्तरिक्ष, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा आदि के सम्बन्ध में अनेकों महत्वपूर्ण तथ्य खोज निकाले थे। अनेकों विद्यायें, कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान में उनकी गति असाधारण थी। अतः अपनी अध्यात्म साधना के समक्ष वे सब कुछ महत्वहीन समझते थे और निरन्तर अपने ध्येय में संलग्न रहते थे …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – परमात्मा के असीम प्रेम की एक बूँद मानव में पायी जाती है जिसके कारण हम उनसे संयुक्त होते हैं, किन्तु कुछ समय बाद इसका लोप हो जाता है और हम निराश हो जाते हैं, सांसारिक बन्धनों में आनंद ढूंढते ही रह जाते है। मन ही बंधन का कारण है और मन ही मुक्ति का भी कारण है। अध्यात्म में इसी मन को साधा जाता है, लेकिन जो व्यक्ति अपने मन को वश में नहीं कर पाता उसका अध्यात्म में बढ़ना कठिन होता है, लेकिन जो अपने मन को वश में कर लेता है, उसकी यात्रा सरल हो जाती है, क्योंकि मन को वश में करते ही इंद्रियां भी वश में आ जाती है और साधक विकारों से बच जाता है। इसीलिये भगवान कहते हैं कि विधिवत आसन में स्थित होकर ध्यान के द्वारा जब योगी अपने मन को वश में कर लेता है और उस मन को भीतर की ओर जोड़ना शुरू करता है तब मन, बुद्धि के साथ जुड़ने लगता है और बुद्धि, आत्मा के साथ लीन होने लगती है, इस प्रकार जब मन आत्मा में लीन हो जाता है तब आज्ञा द्वार आत्मा को परमात्मा अर्थात ब्रह्माण्ड में फैली उस परम चेतना के साथ लीन करने लगता है। ऐसा करते ही योगी को एक असीम शान्ति का अनुभव होने लगता है। वास्तव में यह शान्ति उस परमात्मा में हमेशा-हमेशा बनी रहती है, बस हमें उसके साथ अपने को जोड़ना होता है और इस भाव में लगातार बने रहने से योगी परम निर्वाण या मुक्ति को प्राप्त हो जाता है …।
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