पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
हम अभी इतने समझदार नहीं हुए कि संसार की प्रत्येक वस्तु के अस्तित्व को समझ सकें। इसलिये इस बात को मूल में रख लिया जाए कि इस जगत में प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व ईश्वरीय विधान के अनुसार है। जब तक हर वस्तु, हर कार्य, हर व्यक्ति के लिए हम कारण की खोज में हैं तब तक हम स्वयं को जी रहे होते हैं। जितना हम अपने अहंकार की पुष्टि करते हैं उतना ही हम भीतरी निर्मलता से दूर खड़े हैं। अतः एक आश्रय से जुड़ जाना ही वास्तविक सुख है। इससे सभी प्रकार के कलह, क्लेश, चिंताएं आदि सब लुप्त होने लगती हैं …।
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इस स्थिति को प्राप्त करना मनुष्य का प्रमुख कर्त्तव्य है। जीवन के उत्थान एवं पतन का केन्द्र मन है। यह मन जिधर चलता है, जिधर इच्छा और आकांक्षा करता है उधर ही उसकी एक दुनिया बन कर खड़ी हो जाती है। उसमें ऐसा अद्भुत आकर्षण एवं चुम्बकत्व है कि जिससे खिंचती हुई संसार की वैसी ही वस्तुएं, घटनाएं, साधन-सामग्री, मानवी एवं दैवीय सहायता एकत्रित हो जाती है जैसी कि उसने इच्छा एवं कामना की थी। कल्पवृक्ष की उपमा मन को ही दी गई है। पृथ्वी का कल्पवृक्ष यही है। उसमें ईश्वर ने वह शक्ति विशाल परिमाण में भर दी है कि जैसा मनोरथ करें वैसे ही साधन जुट जायें और उसी पथ पर प्रगति होने लगे। इसलिए मन को ही कामधेनु कहा गया है। वही कामना भी करता है और वही उनकी पूर्ति के साधन भी जुटा लेता है …।
वह तो पहले से ही प्राप्त है, रोम-रोम में रमा है, अनन्त वात्सल्य और असीम करुणा की वर्षा करता हुआ अपना वरद हस्त पहले से ही हमारे सिर पर रखे हुए है, उसे प्राप्त करने में क्या कठिनाई है? कठिनाई तो मन के कुसंस्कारों की है जो आत्मा और परमात्मा के बीच में चट्टान बन कर अड़ा हुआ है। यदि यह अपनी अड़ से पीछे हट जाय तो बस अध्यात्म की सारी सिद्धि करतलगत ही है। मोक्ष और ब्रह्म-निर्वाण प्राप्त हुआ ही रखा है। मन के काबू में आते ही सारी सिद्धियां मुट्ठी में आ जाती हैं। अतः प्रत्येक परिस्थिति सभी प्राणी, जीव-जगत के लिए सर्वदा हितकर है! परमेश्वर के प्रत्येक विधान में परम संतुष्ट रहकर अपना कर्तव्य-धर्म सदैव जागरूक रहकर निभाएं। इस प्रकार संविधान के साथ ईश्वरीय विधान के पालन से भारत में स्वर्णिम युग आएगा …।
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