पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – प्रत्येक जीव के योगक्षेम का सकल निर्वहन करने में सतत् तत्पर परमात्मा का विधान सर्वथा-सर्वदा निर्दोष एवं कल्याणकारी है। यह अनुभव स्थिर होते ही अन्त:करण शान्त, सहज और आनन्द-आपूरित हो जाएगा ..! शरणागति का प्रथम लक्षण है – ईश्वरीय विधान की स्वकृति। जब कोई जीव शरणागत होता है तो धीरे-धीरे उसके अहम की विस्मृति आरम्भ होती है। फिर यह प्रश्न, यह क्यों हुआ, यह कैसे हुआ, इसको ऐसा नहीं वैसा होना चाहिए था, यह विषय जीवन से धीरे-धीरे लुप्त होने लगते हैं। जब जीव शरणागति के मार्ग पर होता है तब स्वामी का सुख ही उसका जीवन होने लगता है। प्रश्नों की उत्पत्ति तब तक है जब तक स्वयं की इच्छाएं शेष हैं। जब प्रभु की इच्छा में स्वयं को समर्पित कर दिया गया तब ईश्वरीय विधान की स्वीकृति हो गई। ईश्वरीय विधान से कोई भी वस्तु व्यर्थ नहीं है। व्यर्थता तभी तक दृष्टिगोचर होती है जब तक उस वस्तु का अस्तित्व ईश्वर की इच्छा को नहीं समझा जाता।
हम अभी इतने समझदार नहीं हुए कि संसार की प्रत्येक वस्तु के अस्तित्व को समझ सकें। इसलिये इस बात को मूल में रख लिया जाए कि इस जगत में प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व ईश्वरीय विधान के अनुसार है। जब तक हर वस्तु, हर कार्य, हर व्यक्ति के लिए हम कारण की खोज में हैं तब तक हम स्वयं को जी रहे होते हैं। जितना हम अपने अहंकार की पुष्टि करते हैं उतना ही हम भीतरी निर्मलता से दूर खड़े हैं। अतः एक आश्रय से जुड़ जाना ही वास्तविक सुख है। इससे सभी प्रकार के कलह, क्लेश, चिंताएं आदि सब लुप्त होने लगती हैं …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनुष्य का विधान तो देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार तो बदलता ही रहता है। किन्तु, उस परम सत्ता का विधान सदैव एक जैसा कल्याणकारी ही है। जैसा कर्मबीज, वैसा ही फल; यह उसका निश्चल विधान है। परमात्मा की ही सत्ता इस संसार के कण-कण में समायी है। प्रत्येक वस्तु में वह ओत-प्रोत है। वृक्ष-वनस्पति जीव-जन्तु, सूर्य-चन्द्रमा, आकाश-पाताल सब उसी लीलामय प्रभु के विविध रूप हैं। प्रत्येक वस्तु में उसी का निवास, उसी की झाँकी देखनी चाहिए, इससे श्रद्धा भावना प्रगाढ़ होती है। दया, करुणा और न्याय मनुष्य तभी कर सकता है जब वह सर्वत्र परमात्मा को विराजमान देखे।
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इस स्थिति को प्राप्त करना मनुष्य का प्रमुख कर्त्तव्य है। जीवन के उत्थान एवं पतन का केन्द्र मन है। यह मन जिधर चलता है, जिधर इच्छा और आकांक्षा करता है उधर ही उसकी एक दुनिया बन कर खड़ी हो जाती है। उसमें ऐसा अद्भुत आकर्षण एवं चुम्बकत्व है कि जिससे खिंचती हुई संसार की वैसी ही वस्तुएं, घटनाएं, साधन-सामग्री, मानवी एवं दैवीय सहायता एकत्रित हो जाती है जैसी कि उसने इच्छा एवं कामना की थी। कल्पवृक्ष की उपमा मन को ही दी गई है। पृथ्वी का कल्पवृक्ष यही है। उसमें ईश्वर ने वह शक्ति विशाल परिमाण में भर दी है कि जैसा मनोरथ करें वैसे ही साधन जुट जायें और उसी पथ पर प्रगति होने लगे। इसलिए मन को ही कामधेनु कहा गया है। वही कामना भी करता है और वही उनकी पूर्ति के साधन भी जुटा लेता है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – यह हमेशा याद रहना चाहिए कि परमात्मा का विधान प्राणिमात्र के सर्वसुहृद हैं, हितकारी हैं। अतः प्रत्येक परिस्थिति में उनकी कृपा का दर्शन करने वाला कभी दुखी नहीं हो सकता। योग-साधना तो महर्षि पतंजलि के शब्दों में ‘चित्त वृत्तियों का निरोध’ मात्र ही है। योग-साधना का सारा कर्मकाण्ड और विधि-विधान चित्त निरोध के लिये ही है। ध्यान की तन्मयता से ही भगवान् के दर्शन होते हैं। विषय-विकारों की ओर से, माया-मोह की ओर से चित्त का हटा लेना ही मोक्ष है। मूर्तिपूजा, कीर्तन, भजन-पूजन का उद्देश्य भी मन की एकाग्रता ही है। सारी साधनायें मन को साधने के लिये ही हैं। भगवान् के लिये क्या साधना करनी?
वह तो पहले से ही प्राप्त है, रोम-रोम में रमा है, अनन्त वात्सल्य और असीम करुणा की वर्षा करता हुआ अपना वरद हस्त पहले से ही हमारे सिर पर रखे हुए है, उसे प्राप्त करने में क्या कठिनाई है? कठिनाई तो मन के कुसंस्कारों की है जो आत्मा और परमात्मा के बीच में चट्टान बन कर अड़ा हुआ है। यदि यह अपनी अड़ से पीछे हट जाय तो बस अध्यात्म की सारी सिद्धि करतलगत ही है। मोक्ष और ब्रह्म-निर्वाण प्राप्त हुआ ही रखा है। मन के काबू में आते ही सारी सिद्धियां मुट्ठी में आ जाती हैं। अतः प्रत्येक परिस्थिति सभी प्राणी, जीव-जगत के लिए सर्वदा हितकर है! परमेश्वर के प्रत्येक विधान में परम संतुष्ट रहकर अपना कर्तव्य-धर्म सदैव जागरूक रहकर निभाएं। इस प्रकार संविधान के साथ ईश्वरीय विधान के पालन से भारत में स्वर्णिम युग आएगा …।
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