पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – विवेकपूर्वक कामना वेग की शिथिलता, प्रलोभन-आकर्षण के प्रति सजगता एवं अखण्ड-प्रचण्ड पुरुषार्थ के साथ आत्म-संयम जीवन की शुभता, दिव्यता और अपूर्व सामर्थ्य जागरण के साधन हैं…! विषय वासनाएँ जन्म-जन्मांतर तक मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ती। जिस मन में विषय वासनाएं है वहाँ ज्ञान कभी टिक नहीं पाता। नियम और संयम के बिना जीवन में कोई साधना फलीभूत नहीं होती। संयम ज्ञान ज्योति है ! ह्रदय पर संयम से चित्त का ज्ञान होता है। संयम एक साधना है एवं साधना का मूल ध्येय है – शरीर और मस्तिष्क को बिना थकाये स्वस्थ चेतना की ओर ले जाना। जो मनुष्य नियम व संयम से चलता है, वह सदैव प्रसन्न रहता है। मानव जीवन में संयमशीलता की आवश्यकता को सभी विचारशील व्यक्तियों ने स्वीकार किया है। साँसारिक व्यवहारों एवं सम्बन्धों को परिष्कृत तथा सुसंस्कृत रूप में स्थित रखने के लिए संयम की अत्यन्त आवश्यकता है। संसार के प्रत्येक क्षेत्र में व जीवन के प्रत्येक पहलू पर सफलता, विकास एवं उत्थान की ओर अग्रसर होने के लिए संयम की भारी उपयोगिता है। विश्व के महान पुरुषों की जीवनियों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि उन्होंने जीवन में जो भी सफलता, उन्नति, श्रेय, महानता, आत्म-कल्याण आदि की प्राप्ति की, उनके कारणों में संयम शीलता की प्रधानता है। संयम के पथ पर अग्रसर होकर ही उन्होंने अपने जीवन को महान बनाया। इसमें कोई संदेह नहीं कि संयम शीलता के पथ पर चल कर ही मनुष्य सही मानव बनता है, देवता बनता है और बनता है जन-जन का प्रिय, जिसके पीछे चलकर मानव जाति धन्य हो जाती है….।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – संयम का तात्पर्य यह है कि बची हुई शक्तियों को शारीरिक कार्यों से समेट कर आध्यात्मिक कार्यों में लगाया जाए। जो समय, जो धन, बुद्धि संयम के द्वारा बचाई गई है उसे सत्कार्य में, परमार्थ में लगाया जाए तो ही उससे अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है। रात्रि को सोते समय संयम की योजना बनानी चाहिए और दिन में उसे कार्यान्वित करना चाहिए। आत्म संयम के पथिकों को प्रतिदिन अपना आत्म निरीक्षण करते रहना अत्यावश्यक है। अपने विचारों तथा कृत्यों के बारे में सदैव सूक्ष्म निरीक्षण करते रहना चाहिए। विचारों तथा कार्यों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जैसे विचार होंगे वे ही क्रिया रूप में अवश्य परिणत होंगे। इसलिए बुरी विचारधारा से सदैव बचना चाहिए, साथ ही विचारों से किये जाने वाले कृत्यों से भी दूर रहना आवश्यक है। आत्म निरीक्षण के लिए प्रातः उठते समय एवं रात्रि को सोते समय अपने दिनभर के कार्यों एवं विचारों का लेखा जोखा लेना चाहिए। रात्रि को सोने के पूर्व अपने दिनभर के कार्यों एवं विचारों का निरीक्षण करना चाहिए। समय के विरुद्ध जो कार्य अथवा विचार आदि किए उनके लिए सच्चे हृदय से प्रायश्चित करना साथ ही भविष्य में न करने का संकल्प लेना आवश्यक है। इसी प्रकार प्रातःकाल अपनी पिछली कमियों को ध्यान रखते हुए दिनभर में वे व्यवहार में न आए, इससे सचेत होकर अपनी दिनचर्या को योजना बनानी चाहिए। इस प्रकार प्रतिदिन आत्म-निरीक्षण करने से संयम शीलता की और चरित्र गठन की ओर सरलता से बढ़ा जा सकता है। इस प्रकार आत्म निरीक्षण के लिए डायरी बना लेनी चाहिए। इससे अपनी संयम साधना में काफी सहयोग मिलेगा..।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – अपनी मानसिक वृत्तियों, बुरी आदतों एवं वासनाओं पर नियंत्रण पाना ही संयम शीलता के पथ पर अग्रसर होना है जिससे मनुष्य की शक्तियों का व्यर्थ ही ह्रास न होकर केन्द्रीयकरण होने लगता है जो जीवन में एक विशेषता ला देता है जिसके कारण मनुष्य समाज में आदर्श स्थापित कर पाता है। संयम शीलता के उक्त दुर्दम्य पथ पर चलने के लिए, अपने विचारों, आदतों एवं वासनाओं पर नियंत्रण करने के संयम का सहारा लेना आवश्यक है। आत्म संयम के अभिलाषियों के लिए दोषों, बुराइयों को जानबूझ कर छिपाना, उन पर कृत्रिमता का पर्दा डालकर ढ़क देना अथवा स्वीकार करने में संकोच करना, सर्वथा अनुपयुक्त है। चरित्र गठन या आत्म संयम के लिए अपनी बुराइयों को मुक्त कंठ से स्वीकार करना होगा। इसका अभ्यास स्वयं से शुरू करना चाहिए। एकाँत में बैठकर अपने हृदय के समक्ष अपनी बुराइयों, दुष्कृत्यों एवं दुर्विचारों पर विचार करके उन्हें स्वीकार करना होगा। संयम शीलता के लिए नैतिक बल बढ़ाना भी आवश्यक है। ज्यों-ज्यों मनुष्य का नैतिक स्तर ऊँचा होता जाएगा, त्यों-त्यों ही विचारों एवं कार्यों में संयम बढ़ेगा। संयम साधना में संगति एवं स्थान का काफी प्रभाव पड़ता है। सात्विक वातावरण, महापुरुषों का संग एवं सत्संग करने से मनुष्य बड़ी से बड़ी खराब आदतों एवं दुर्विचारों को त्याग देता है और जीवन में काफी उन्नति कर जाता है। अतः संयम शीलता की ओर अग्रसर होने के लिए विपरीत संगति, स्थान, वातावरण का त्याग करना होगा। अतः जप, ध्यान, धारणा, प्रत्याहार, यम, नियम आदि की साधनायें मनुष्य की संयम शीलता के लिए बहुत महत्वपूर्ण माध्यम हैं। इनके अनुसार अभ्यास करने पर मनुष्य अपने जीवन में संयमशीलता में सफलता प्राप्त करके महान एवं पवित्र जीवन का निर्माण कर सकता है…।
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