पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – अहंशून्य, विनम्र-सेवाभावी और अनुशासित साधक के पास लौकिक-पारलौकिक अनुकूलताएँ उसी प्रकार चली आतीं हैं जैसे समुद्र के पास सलिलाएँ…! इस जगत में हर चीज शून्य में ही समाई हुई है। जब आप शून्य हो जाते हैं तो आप हर चीज को अपने भीतर समा सकते हैं। तो भक्ति का अर्थ बस यही है। चेतना के दो तल हैं। पहला तल व्यक्तित्व या अहंकार का है और दूसरा तल आत्मा का तल है। जहां व्यक्तित्व या अहंकार है, मैं-पन है अथवा अपने होने का भाव है; वहां आनंद नहीं है। दूसरी बात, आनंद हमारा स्वभाव है। व्यक्तित्व नहीं, निजता हमारी प्रकृति है। व्यक्तित्व है – परिधि; परन्तु निजता केन्द्रीय तत्व है। आनंद अंतर्यात्रा है। जब भी मिलेगा, अपने भीतर से ही मिलेगा। जहां मन नहीं है, विचार नहीं है, वहीं आनंद है। संत कबीर इसी आनंद को सहज समाधि कहते हैं। विराट के साथ एक हो जाना ही आनंद है। जब तक हम अकेले हैं, जब तक हम द्वैत में हैं, तब तक आनंद नहीं है। लेकिन जैसे ही हम विराट के साथ एकाकार होते हैं, जहां हमारी अलग सत्ता समाप्त हो जाती है – वहां आनंद है…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – आनंद अहंकार-शून्य अवस्था है। आनंद की स्थिति में मानसिक शांति को विशेष महत्व दिया जाता है। आनंद के बारे में बताया नहीं जा सकता, बल्कि इसकी अनुभूति की जा सकती है। आनंद के अनुभव के लिए अपने भीतर लौटना होगा। जबकि अंतस की यात्रा शुरू होती है – साक्षी से, ध्यान से। मन को एकाग्र शांत व शून्य अवस्था में लाना ही ध्यान है। साक्षीभाव का मतलब है – किसी वस्तु या विषय को साक्षी बनकर देखना। आनंद प्राप्ति का दूसरा कदम है – स्वीकार भाव। हर स्थिति को स्वीकार करना। तीसरा कदम है – सद्गुरु का सानिध्य। साक्षी और स्वीकार भाव तो हम स्वयं भी साध सकते हैं, लेकिन आगे की अंतर्यात्रा अगर अकेले की, तो भटकने की संभावना ज्यादा रहेगी। अतः सद्गुरु आपको परम तत्व की दिशा की ओर उन्मुख करते हैं। सद्गुरु के मार्गदर्शन से ही आनंद की असली यात्रा शुरू होती है। फिर बारी आती है – प्रभु के सुमिरन की। सुमिरन ही एक दिन समाधि तक पहुंचा देता है। समाधि अहंकार, मन, विचार – इन सभी को मिटा देती है और रह जाती है तो केवल शुद्ध चेतना। विराट के साथ जब हम एक होते हैं, तब उस समाधि का नाम ही आनंद है। परमपुरुष से एक हुए बिना कोई भी आनंद का अनुभव नहीं कर सकता। सुख की मनोदशा में भौतिक स्थितियों को भी विशेष महत्व दिया जाता है, लेकिन आनंद मानसिक शांति की सर्वोच्च मनोदशा है…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – साधना एवं अनुशासन से संवरता है –
जीवन। जीवन को संवारने के लिए सतत् साधना एवं अनुशासन की जरूरत है। अनुशासन एक क्रिया है जो अपने शरीर, दिमाग और आत्मा को नियंत्रित करता है। हमारे जीवन मे ‘अनुशासन’ एक ऐसा गुण है, जिसकी आवश्यकता मानव जीवन में पग-पग पर पड़ती है। इसका प्रारम्भ जीवन में बचपन से ही होना चाहिये ओर यही से ही मानव के चरित्र का निर्माण होता है। अनुशासन शब्द तीन शब्दों से मिलकर बना है- अनु, शास्, अन,। विशेष रूप से अपने ऊपर शासन करना एवं शासन के अनुसार अपने जीवन को चलाना ही अनुशासन है। अनुशासन राष्ट्रीय जीवन का प्राण है। यदि प्रशासन, स्कूल समाज, परिवार सभी जगह सब लोग अनुशासन में रहेंगे और अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे, अपनी जिम्मेदारी समझेंगे तो कहीं किसी प्रकार की गड़बड़ी या अशांति नहीं होगी। नियम तोड़ने से ही अनुशासनहीनता बढ़ती है तथा समाज में अव्यवस्था पैदा होती है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासन का महत्व है। अनुशासन से धैर्य और समझदारी का विकास होता है। समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता बढ़ती है। इससे कार्य क्षमता का विकास होता है तथा व्यक्ति में नेतृत्व की शक्ति जाग्रत होने लगती है। इसलिये हमें हरपल अनुशासनपूर्वक आगे बढ़ने का प्रयत्न करना चाहिए। अतः मानव जीवन की सफलता का एक मात्र मंत्र है – अनुशासन…।
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