पूज्य सद्गुरुदेव आशिषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – आध्यात्मिक पथिक का प्रथम पाथेय है – अन्त:करण की पवित्रता और प्रार्थना…! विचारों की पवित्रता तथा दृढ़ता से ही जीवन में सात्विकता आती है। पवित्र विचार और शुभ संकल्प अंतःकरण की उन्नत अवस्था हैं। हमारे मन की पवित्रता केवल अपने लिए ही कल्याणकारी नहीं होती, बल्कि वह संपूर्ण समाज तथा विश्व के लिए भी मंगलमय होती है। मनुष्य के पवित्र संकल्प में ही जीवन की अनंतता, श्रेष्ठता और भगवत्ता समाहित है, अतः संकल्प शुभ रहे। ज्ञानी व्यक्ति ही मन की कामना को नियंत्रित रख सकता है। ज्ञान, विवेक और विचार के बिना सब विष है। शब्द, रूप, स्पर्श यह सब विष हो जाते हैं। ज्ञानवान ही इनके महत्व को पहचानता है। उन्होंने कहा कि वही मनुष्य सफल है जिसने वासनाओं एवं द्वेष को जान लिया हो। मनुष्य को अपने जीवन के सत्य को जानना चाहिए। प्रार्थना, दान, पुण्य व सेवा के द्वारा ही अंतर्मन को निर्मल किया जा सकता है। लक्ष्मी जी दो रूपों में आती हैं – एक उल्लू वाहिनी तथा दूसरी कमलासन। उल्लू रात को देखता है और वह धन जिसका उपयोग रात्रि की जीवनशैली, गोपनीय कार्यों या निशाचरी कार्यों में होता है, वह लक्ष्मी उल्लूवाहिनी होती है। उन्होंने कहा कि लक्ष्मी का कमलासन या शुभ्रा रूप वास्तव में ज्ञान तथा अच्छे विचार लेकर आता है। इसी रूप के साथ नारायण का वास, है जिससे सद्प्रवृत्तियां मनुष्य के जीवन में प्रवेश करती हैं। पूज्य “आचार्यश्री” जी कहा करते हैं कि अंत:कर्म की पवित्रता व निर्मलता मनुष्य के जीवन को सार्थक बना सकती है। उन्होंने अपने प्रवचनों में मानव जीवन का सबसे बड़ा शत्रु आलस्य को बताया। आलस्य को जीवन में कथा का श्रवण करके ही दूर किया जा सकता है। संसार में जो भी सफल व्यक्ति हुए हैं, उन्होंने आलस्य का त्याग किया है…।
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पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – भाव की पवित्रता से भक्ति मिलेगी। स्वयं के प्रति अविश्वास की भावना पैदा होना पलायन है। पलायन करने वाला व्यक्ति बहाने बनाता है। वह लक्ष्य से भटक जाता है। वह संशय, भय और असमंजस में रहने लगता है। इससे जड़ता और अकर्मण्यता भी आती है। जो भोग के परिणाम से परिचित हैं, वे कभी दु:खी नहीं होते। गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं – जो बहुत सहज हैं; जितेंद्रिय, प्रसन्नात्मा एवं शांत हैं, जिनमें संतुलन पैदा हो गया है अथवा जिनमें समतायोग सिद्ध हो गया है; उन महापुरुषों निकट जाने से उनके सानिध्य से अन्तःकरण शांत और मन निर्मल हो जाता है। उनके वचन मुक्तिकारक होते हैं। जहां वृत्तियों का बसेरा है, वही चित्त है। मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार को अंत:करण कहा गया है। जिसका अंत:करण शांत है, वही आध्यात्मिक व्यक्ति है। मनुष्य की बौद्धिक प्यास भटक गई है। अब केवल दिखने-दिखाने की लालसा रह गई है। मुक्ति पाने के लिए नारायण के साथ जुड़ें। विश्व में एकता व अखंडता की मिसाल सिर्फ भारत में ही है। हां, खोज राजनीतिक गलियारों में नहीं अध्यात्म की गंगा में करनी होगी। वर्तमान में आवश्यकता है – अध्यात्म और विज्ञान दोनों का सहारा लेकर चिंतन करने की। चिंतन के बाद आचरण करना होगा। चिंतन आचरण में आना चाहिए, तभी उसका अर्थ है। जिस विचार को व्यवहार में नहीं उतारा जा सके, उसकी मान्यता नहीं होती। नीतियों के आधार पर मानक उदाहरण खड़े करने होंगे…।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मन, कर्म, वचन से की जाए तभी होगी, प्रार्थना। मन, कर्म, वचन में एकता आते ही पूरा व्यक्तित्व निखर आता है। श्रीहनुमान चालीसा की 26वीं चौपाई से समझें। “संकट तें हनुमान छुड़ावै। मन क्रम वचन ध्यान जो लावै”।। हे हनुमानजी ! यदि कोई मन, कर्म और वाणी द्वारा आपका ध्यान करें तो आप उसे सारे संकटों से छुटकारा दिला देते हैं। यह पंक्ति प्रार्थना की परिभाषा है। प्रार्थना तभी पूरी होती है जब मन, कर्म, वचन से हृदय में प्रार्थना उतारी जाए। नहीं तो हम प्रार्थना कर रहे हैं और मन हमारा कहीं और है, कर्म कहीं और लगा है, वचन कहीं और चल रहे हैं तो यह प्रार्थना नहीं होगी। प्रार्थना का अर्थ इन तीनों का हृदय में एक साथ आ जाना है। हमारे चिंतन में, चर्या में और चर्चा में समानता होनी चाहिए। हमारी वाणी में, व्यवहार में और विचार में एकरूपता होनी चाहिए। तब जो प्रार्थना हम करेंगे, वह सच्ची प्रार्थना होगी और ऐसी प्रार्थना करने वाले कभी भी संकट में नहीं पड़ते। प्रार्थना का एक उदाहरण देखिए। जब हनुमानजी लंका से सीता माता की खोज के बाद उनका संदेश लेकर प्रभु श्रीरामजी के पास लौटे, तब उन्होंने सीताजी की विरह-कथा श्रीराम को सुनाई थी। सीताजी का दु:ख सुनकर, सुख के धाम प्रभु के कमल नेत्रों में जल भर आया। हनुमानजी की प्रार्थना ने परमात्मा को पिघला दिया। ईश्वर की अर्चना-उपासना और प्रार्थना करते हुए ईश्वर की याद में अकारण ही यदि आपके आखों में आँसू भर आए तो समझ लेना कि आपका संदेश ईश्वर तक पहुंच गया है। अतः जो परमात्मा को पिघला दे, वही सच्ची प्रार्थना है…।
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